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________________ 420 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन अर्थ करने में जहाँ एक ओर हम तुलनात्मक-विवेचन को सुलभ बना सकेंगे, वहीं दूसरी ओर जैन-परम्परा के मूल आशय से भी दूर नहीं जाएंगे, लेकिनसंवरका यह निषेधक-अर्थ ही सब-कुछ नहीं है, वरन् उसका एक विधायक-पक्ष भी है।शुभअध्यवसाय भी संवर के अर्थ में स्वीकार किए गए हैं, क्योंकि अशुभ की निवृत्ति के लिए शुभ का अंगीकार प्राथमिक स्थिति में आवश्यक है। वृत्ति-शून्यता के अभ्यासी के लिए भी प्रथम, शुभ-वृत्तियों को अंगीकार करना होता है, क्योंकि चित्त के शुभवृत्ति से परिपूर्ण होने पर अशुभके लिए कोई स्थान नहीं रहता। अशुभको हटाने के लिए शुभ आवश्यक है। संवरका अर्थशुभ-वृत्तियों का अभ्यास भी है। यद्यपि वहाँ शभ का मात्र वही अर्थ नहीं है, जिसे हमें पुण्यासव या पुण्यबंध के रूप में मानते हैं। 2. जैन-परम्परा में संवर का वर्गीकरण (अ) जैन-दर्शन में संवरकेदोभेद हैं- 1. द्रव्य-संवरऔर 2.भाव-संवर।द्रव्यसंग्रह में कहा गया है कि कर्मास्रव को रोकने से सक्षम आत्मा की चैत्तसिक-स्थिति भावसंवर है और द्रव्यास्रव को रोकने वाला उस चैत्तसिक-स्थिति का परिणाम द्रव्य-संवर है।। (ब) संवर के पाँच अंग या द्वार बताए गए हैं- 1. सम्यक्त्व- यथार्थ दृष्टिकोण, 2. विरति-मर्यादित या संयमित जीवन, 3. अप्रमत्तता- आत्म-चेतनता, 4. अकषायवृत्तिक्रोधादि मनोवेगों का अभाव और 5. अयोग- अक्रिया।' (स) स्थानांगसूत्र में संवरके आठभेद निरूपित हैं- 1. श्रोत्र-इन्द्रिय कासंयम, 2. चक्षु-इन्द्रिय का संयम, 3. घ्राण-इन्द्रिय का संयम, 4. रसना-इन्द्रिय का संयम, 5. स्पर्श इन्द्रिय का संयम, 6. मन का संयम, 7. वचन का संयम, 8. शरीर का संयम। (द) प्रकारान्तर से जैनागमों में संवर के सत्तावन भेदभी प्रतिपादित हैं, जिनमें पाँच समितियाँ, तीन गुप्तियाँ, दसविध यति-धर्म, बारह अनुप्रेक्षाएँ (भावनाएँ) बाईस परीषह और पाँच सामायिक-चारित्र सम्मिलित हैं। ये सभी कर्मासव का निरोध कर आत्मा को बन्धन से बचाते हैं, अत: संवर कहे जाते हैं। इन सबका विशेष सम्बन्ध संन्यास या श्रमण जीवन से है। उपर्युक्त आधारों पर यह स्पष्ट हो जाता है कि संवर का तात्पर्य ऐसी मर्यादित जीवन-प्रणाली है, जिसमें विवेकपूर्ण आचरण (क्रियाओं का सम्पादन) मन, वाणी और शरीर की अयोग्य प्रवृत्तियों का संयमन, सद्गुणों का ग्रहण, कष्ट-सहिष्णुताऔर समत्वकी साधना समाविष्ट है। जैन-दर्शन में संवर के साधक से यही अपेक्षा की गई है कि उसका प्रत्येक आचरण संयत एवं विवेकपूर्ण हो, चेतना सदैव जाग्रत रहे, ताकि इन्द्रियों के विषय उसमें राग-द्वेष की प्रवृत्तियाँ पैदा न कर सकें। जब इन्द्रियाँ और मन अपने विषयों के सम्पर्क में आते हैं, तो आत्मा में विकार या वासना उत्पन्न होने की सम्भावना खड़ी होती है, अत: Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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