________________
कर्म बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया
405
आयुष्य-कर्म चार प्रकार का है- 1. नरक-आयु, 2. तिर्यंच-आयु (वानस्पतिक एवं पशुजीवन) 3. मनुष्य-आयु और 4. देव-आयु।
आयुष्य-कर्म के बन्ध के कारण- सभी प्रकार के आयुष्य-कर्म के बन्ध का कारण शील और व्रत से रहित होना माना गया है, फिर भी किस प्रकार के आचरण से किस प्रकार का जीवन मिलता है, उसका निर्देश भी जैन-आगमों में उपलब्ध है। स्थानांगसूत्र में प्रत्येक प्रकार के आयुष्य-कर्म के बन्ध के चार-चार कारण माने गए हैं।
(अ) नारकीय-जीवन की प्राप्ति के चार कारण- 1. महारम्भ (भयानक हिंसक कर्म), 2. महापरिग्रह (अत्यधिक संचय-वृत्ति), 3. मनुष्य, पशु आदि का वध करना, 4. मांसाहार और शराब आदि नशीले पदार्थों का सेवन।
(ब) पाशविक-जीवन की प्राप्ति के चार कारण- 1. कपट करना, 2. रहस्यपूर्ण कपट करना, 3. असत्य भाषण, 4. कम-ज्यादा तौल-माप करना। कर्म-ग्रन्थ में प्रतिष्ठा कम होने के भय से पाप का प्रकट न करना भी तिर्यंच-आयु के बन्ध का कारण माना गया है।” तत्त्वार्थसूत्र में माया (कपट) को ही पशुयोनि का कारण बताया है।
(स) मानव-जीवन की प्राप्तिके चार कारण-1.सरलता, 2. विनयशीलता, 3. करुणा और 4. अहंकार एवं मात्सर्य से रहित होना। तत्त्वार्थसूत्र में 1. अल्प आरम्भ, 2. अल्पपरिग्रह, 3. स्वभाव की सरलता और 4. स्वभाव की मृदुता को मनुष्य-आयु के बन्ध का कारण कहा गया है।
(द) दैवीय-जीवन की प्राप्ति के चार कारण- 1. सराग (सकाम) संयम का पालन, 2. संयम का आंशिक पालन, 3. सकाम-तपस्या (बाल-तप), 4. स्वाभाविक रूप में कर्मों के निर्जरित होने से। तत्त्वार्थसूत्र में भी यही कारण माने गए हैं। कर्म-ग्रन्थ के अनुसार अविरत-सम्यक्दृष्टि मनुष्य या तिर्यंच, देशविरत-श्रावक, सरागी-साधु, बालतपस्वी और इच्छा नहीं होते हुए भी परिस्थितिवश भूख-प्यास आदि को सहन करते हुए अकाम-निर्जरा करने वाले व्यक्ति देवायु का बन्ध करते हैं।'
आकस्मिकमरण-प्राणी अपने जीवनकाल में प्रत्येक क्षण आयुकर्म को भोग रहा है और प्रत्येक क्षण में आयुकर्म के परमाणु भोग के पश्चात् पृथक् होते रहते हैं। जिस समय वर्तमानआयुक' के पूर्वबद्ध समस्त परमाणु आत्मा से पृथक् हो जाते हैं, उस समय प्राणी को वर्तमान शरीर छोड़ना पड़ता है। वर्तमान शरीर छोड़ने के पूर्व ही नवीन शरीर के आयुकर्म का बन्ध हो जाता है, लेकिन यदि आयुग का भोग इस प्रकार नियत है, तो आकस्मिकमरण की व्याख्या क्या ? इसके प्रत्युत्तर में जैन-विचारकों ने आयुकर्म का भोग दो प्रकार का माना- 1. क्रमिक, 2. आकस्मिक। क्रमिक-भोग में स्वाभाविक रूप से आयु का भोग धीरे-धीरे होता रहता है, जबकि आकस्मिक-भोग में किसी कारण के उपस्थित हो जाने
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org