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भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन
परमाणुओं का आस्रव (आकर्षण) होता है और कर्मास्रव से कर्म-बन्ध होता है। यह बन्धन की प्रक्रिया कर्मों के स्वभाव (प्रकृति), मात्रा, काल, मर्यादा और तीव्रता-इन चारों बातों का निश्चय कर सम्पन्न होती है।
1. प्रकृतिबन्ध- यह कर्म-परमाणुओं की प्रकृति (स्वभाव) का निश्चय करता है, अर्थात् कर्म के द्वारा आत्मा की ज्ञानशक्ति, दर्शनशक्ति आदि किस शक्ति का आवरण होगा, इस बात का निर्धारण कर्म की प्रकृति करती है।
2. प्रदेशबन्ध- कर्म-परमाणु आत्मा के किस विशेष भाग का आवरण करेंगे, इसका निश्चय प्रदेशबन्ध करता है। यह मात्रात्मक होता है। स्थिति और अनुभाग से निरपेक्ष कर्म-दलिकों की संख्या की प्रधानता से कर्म-परमाणुओं का ग्रहण प्रदेश-बन्ध कहलाता है।
3. स्थितिबन्ध- कर्म-परमाणु कितने समय तक सत्ता में रहेंगे और कब अपना फल देना प्रारम्भ करेंगे, इस काल-मर्यादा का निश्चय स्थितिबन्ध करता है। यह समय मर्यादा का सूचक है।
4. अनुभागबन्ध- यह कर्मों के बन्ध एवं विपाक की तीव्रता और मन्दता का निश्चय करता है। यह तीव्रता या गहनता (Intensity) का सूचक है। 2. बन्धन का कारण - आम्रव
जैन-दृष्टिकोण- जैन-दर्शन में बन्धन का कारण आस्रव है।आस्रवशब्द क्लेश यामल का बोधक है। क्लेशयामल ही कर्मवर्गणा के पुद्गलों को आत्मा के सम्पर्क में आने का कारण है, अत: जैन-तत्त्वज्ञान में आस्रवका रूढ़ अर्थ यह भी हुआ कि कर्मवर्गणाओं का आत्मा में आना आस्रव है। अपने मूल अर्थ में आस्रव उन कारकों की व्याख्या करता है, जो कर्मवर्गणाओं को आत्मा की ओर लाते हैं और इस प्रकार आत्मा के बन्धन के कारण होते हैं। आस्रव के दो भेद हैं-(1) भावास्रव और (2) द्रव्यासव। आत्मा की विकारी-मनोदशा भावास्रव है और कर्मवर्गणाओं के आत्मा में आने की प्रक्रिया द्रव्यास्रव है। इस प्रकार, भावास्रव कारण है और द्रव्यासव कार्य या प्रक्रिया है। द्रव्यास्रव का कारण भावासव है, लेकिन यह भावात्मक-परिवर्तन भी अकारण नहीं है, वरन् पूर्वबद्ध कर्म के कारण होता है। इस प्रकार, पूर्व-बन्धन के कारणभावानव औरभावानवके कारण द्रव्यासवऔर द्रव्यासव से कर्म का बन्धन होता है।
वैसे, सामान्य रूप में मानसिक, वाचिक एवं कायिक-प्रवृत्तियाँ ही आसव हैं। ये प्रवृत्तियों या क्रियाएँ दो प्रकार की होती हैं, शुभ प्रवृत्तियाँ पुण्य-कर्म का आस्रव हैं और
अशुभ प्रवृत्तियाँ पाप-कर्म का आस्रव हैं। उन सभी मानसिक एवं कायिक-प्रवृत्तियों का, जोआस्रव कही जाती हैं, विस्तृत विवेचन यहाँ सम्भव नहीं है। जैनागमों में इनका वर्गीकरण
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