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________________ कर्म बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया 389 12 कर्म-बन्ध के कारण, स्वरूप एवं प्रक्रिया 1. बन्धन और दुःख बन्धन सभी भारतीय-दर्शनों का प्रमुख प्रत्यय है, यही दुःख है। भारतीय-चिन्तन के अनुसार नैतिक-जीवन की समग्र साधना बन्धन या दुःख से मुक्ति के लिए है। इस प्रकार, बन्धन नैतिक एवं आध्यात्मिक जीवन-दर्शन की प्रमुख मान्यता है। यदि बन्धन की वास्तविकता से इन्कार करते हैं, तो नैतिक-साधना का कोई अर्थ नहीं रह जाता, क्योंकि भारतीय-दर्शन में नैतिकता का प्रत्ययसामाजिक-व्यवहार की अपेक्षा बन्धन-मुक्ति, दुःखमुक्ति अथवा आध्यात्मिक-विकाससे सम्बन्धित है। जैन-दर्शन के अनुसार, जड़ द्रव्यों में एक पुद्गल नामक द्रव्य है। पुद्गल के अनेक प्रकारों में कर्म-वर्गणायाकर्म-परमाणु भी एक प्रकार है। कर्म-वर्गणा या कर्म-परमाणु एक सूक्ष्म भौतिक-तत्त्व (द्रव्य) है। इस सूक्ष्म भौतिक कर्म-द्रव्य (Karmic Matter) से आत्मा का सम्बन्धित होना ही बन्धन है। तत्त्वार्थसूत्र में उमास्वाति कहते हैं, 'कषायभाव के कारण जीव काकर्म-पुद्गल से आक्रान्त हो जाना ही बन्ध है।''बन्धन आत्म का अनात्मसे, जड़का चेतन से, देह का देही से संयोग है। यही दुःख है, क्योंकि समग्र दु:खों का कारण ही माना गया है। वस्तुत:, आत्मा के बन्धन काअर्थसीमितता या अपूर्णता है। आत्मा की सीमितता, अपूर्णता, बन्धन एवंदुःख, सभी उसके शरीर के साथ आबद्ध होने के कारण हैं। वास्तव में, शरीर ही बन्धन है। शरीर से यहाँ तात्पर्य स्थूल-शरीर नहीं, वरन् लिंग-शरीर, कर्म-शरीर या सूक्ष्म-शरीर है, जो व्यक्ति के कर्म-संस्कारों से बनता है। यह सूक्ष्म लिंग-शरीर या कर्म-शरीर ही प्राणियों के स्थूल शरीर का आधार एवं जन्म-मरण की परम्परा का कारण है। जन्म-मरण की यह परम्परा ही भारतीय-दर्शनों में दु:ख या बन्धन मानी गई है। कर्म-ग्रन्थ में कहा गया है कि आत्मा जिस शक्ति (वीर्य) विशेषसे कर्म-परमाणुओं को आकर्षित कर उन्हें आठ प्रकार के कर्मों के रूप में जीव-प्रदेशों से सम्बन्धित करता है तथा कर्म-परमाणुऔर आत्मा परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करते हैं, वह बन्धन है। जैसे दीपक अपनी उष्मा से बत्ती के द्वारा तेल को आकर्षित कर उसे अपने शरीर (लौ) के रूप में बदल लेता है, वैसे ही यह आत्मरूपी दीपक अपनी रागभावरूपी उष्मा के कारण क्रियाओंरूपी बत्ती के द्वारा कर्म-परमाणुओंरूपी तेल को आकर्षित कर उसे अपने कर्म-शरीररूपी लौ में बदल देता है। इस प्रकार, यह बन्धन की प्रक्रिया चलती रहती है। आत्मा के रागभाव से क्रियाएँ होती हैं, क्रियाओं से कर्म Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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