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________________ कर्म का अशुभत्व, शुभत्व एवं शुद्धत्व 369 (स) मानसिक-पाप- 8. अभिज्जा (लोभ), 9. व्यापाद (मानसिक-हिंसा या अहित चिन्तन), 10. मिच्छादिट्ठी (मिथ्या दृष्टिकोण) अभिधम्मत्थसंगहो में निम्न 14 अकुशल चैत्तसिक बताए गए हैं - 1. मोह (चित्त का अन्धापन), मूढता, 2. अहिरिक (निर्लज्जता), 3. अनोत्तप्पंअ-भीरता (पापकर्म में भय न मानना), 4. उद्धच्चं-उद्धतपन (चंचलता), 5. लोभो (तृष्णा), 6. दिट्ठि-मिथ्यादृष्टि, 7. मानो-अहंकार, 8. दोसो-द्वेष, 9. इस्सा-ईर्ष्या (दूसरे की सम्पत्ति को न सह सकना), 10. मच्छरियं-मात्सर्य्य (अपनी सम्पत्ति को छिपाने की प्रवृत्ति), 11. कुक्कुच्च-कौकृत्य (कृत-अकृत के बारे में पश्चाताप), 12. थीनं, 13. मिद्धं, 14. विचिकिच्छा-विचिकित्सा (संशय)। गीताका दृष्टिकोण गीता में भी जैन और बौद्ध-दर्शन में स्वीकृत इन पापाचरणों या विकर्मों का उल्लेख आसुरी-सम्पदा के रूप में किया जाता है। गीता-रहस्य में तिलक ने मनुस्मृति के आधार पर निम्न दस प्रकार के पापाचरण का वर्णन किया है।' (अ) कायिक- 1. हिंसा, 2. चोरी, 3. व्यभिचार। (ब) वाचिक- 4. मिथ्या (असत्य), 5. ताना मारना, 6. कटु वचन, 7.असंगत वाणी। (स) मानसिक- 8. परद्रव्य की अभिलाषा, 9. अहित-चिन्तन, 10. व्यर्थ आग्रह। पापके कारण जैन-विचारकों के अनुसार पापकर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं- (1) राग (आसक्ति), (2) द्वेष (घृणा), (3) मोह (अज्ञान)। जीव राग, द्वेष और मोह से ही पापकर्म करता है। बुद्ध के अनुसार भी पापकर्म की उत्पत्ति के स्थान तीन हैं- (1) लोभ (राग), (2) द्वेष और (3) मोह। गीता के अनुसार काम (राग) और क्रोध ही पाप के कारण हैं। 3. पुण्य (कुशल कर्म) पुण्य वह है, जिसके कारण सामाजिक एवं भौतिक-स्तर पर समत्व की स्थापना होती है। मन, शरीर और बाह्य-परिवेश में सन्तुलन बनाना, यह पुण्य का कार्य है। पुण्य क्या है, इसकी व्याख्या में तत्त्वार्थसूत्रकार कहते हैं- शुभास्रव पुण्य है, लेकिन पुण्य मात्र आम्रव नहीं है, वह बन्ध और विपाक भी है। वह हेय ही नहीं है, उपादेय भी है, अत: अनेक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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