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________________ 350 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन अप्रभावित नहीं रख सकती। मूर्त शरीर के माध्यम से उस परमूर्त-कर्म का प्रभाव पड़ता है। मूर्त्तकाअमूर्त से सम्बन्ध यह प्रश्न भी उठ सकता है कि मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा से कैसे सम्बन्धित होते हैं? जैन-विचारकों का समाधान यह है कि जैसे मूर्त घट अमूर्त आकाश के साथ सम्बन्धित होता है, वैसे ही मूर्त कर्म अमूर्त आत्मा के साथ सम्बन्धित होते हैं। जैन-विचारकों ने आत्मा और कर्म के सम्बन्ध को नीर-क्षीरवत् अथवा अग्नि-लौहपिंडवत् माना है। यह प्रश्न भी उठ सकता है कि यदि दो स्वतन्त्र सत्ताओं-जड़ कर्म-परमाणु और चेतन में पारस्परिक-प्रभाव को स्वीकार किया जाएगा, तो फिर मुक्तावस्था में भी जड़-कर्मपरमाणु आत्मा को प्रभावित किए बिना नहीं रहेंगे और मुक्ति का कोई अर्थ नहीं होगा। यदि वे परस्पर एक-दूसरे को प्रभावित करने में सक्षम नहीं हैं, तो फिर बन्धन ही कैसे सिद्ध होगा ? आचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा कि जैसे स्वर्ण कीचड़ में रहने पर भी जंग नहीं खाता, जबकि लोहा जंग खा जाता है, इसी प्रकार शुद्धात्मा कर्मपरमाणुओं के मध्य रहते हुए भी उनके निमित्त से विकारी नहीं बनता, जबकि अशुद्ध आत्मा विकारी बन जाता है। जड़ कर्म-परमाणु उसी आत्मा को विकारी बना सकते हैं, जो पूर्व में रागद्वेष आदि से अशुद्ध हैं। वस्तुतः, आत्मा जब तक भौतिक शरीर से युक्त होता है, तभी तक कर्म-परमाणु उसे प्रभावित कर सकते हैं। कर्म-शरीर के रूप में रहे हुए कर्म-परमाणु ही बाह्य-जगत् के कर्म-परमाणुओं का आकर्षण कर सकते हैं। चूँकि मुक्तावस्था में आत्मा अशरीरी होता है, अत: उस अवस्था में कर्म-परमाणुओं की उपस्थिति में भी उसे बन्धन में आने की कोई सम्भावना नहीं रहती। 11. कर्म और विपाक की परम्परा राग-द्वेषआदिकी शुभाशुभ वृत्तियाँ ही भावकर्म के रूप में आत्मा की अवस्थाविशेष हैं । भावकर्म की उपस्थिति में ही द्रव्य-कर्म आत्मा के द्वारा ग्रहण किए जाते हैं। भावकर्म के निमित्त से द्रव्यकर्म का आस्रव होता रहता है और यही द्रव्यकर्म समय विशेष में भावकर्म का कारण बन जाता है। इस प्रकार कर्म-प्रवाह चलता रहता है। कर्म-प्रवाह ही संसार है। कर्म और विपाक की परम्परा से यह संसारचक्र प्रवर्तित होता रहता है। भगवान् बुद्ध कहते हैं कि कर्म से विपाक प्रवर्तित होते हैं और विपाक से कर्म उत्पन्न होता है। कर्म से पुनर्जन्म होता है और इस प्रकार यह संसार प्रवर्तित होता है, अत: यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि कर्म और आत्मा का सम्बन्ध कब से है, अथवा कर्म और विपाक की परम्परा का प्रारम्भ कब हुआ ? यदि हम इसे सादि मानते हैं, तो यह मानना पड़ेगा कि किसी काल-विशेष में आत्मा बद्ध हुआ, उसके पहले Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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