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________________ 336 भारतीय आचार-दर्शन : एक तुलनात्मक अध्ययन कर्म-सिद्धान्त की उद्भावना में औपनिषदिक-चिन्तन का योगदान यह है कि उसमें तत्कालीन काल, स्वभाव, नियति आदि सिद्धान्तों की अपूर्णता को अभिव्यक्त करने का प्रयास मात्र किया गया। उसने न केवल इनका निषेध किया, वरन् इनके स्थान पर ईश्वर (ब्रह्म) को कारण मानने का प्रयास किया। श्वेताश्वतर-उपनिषद् में कहा गया है कि कुछ बुद्धिमान तो स्वभावको कारण बतलाते हैं और कुछ काल को, किन्तु ये मोहग्रस्त हैं (अत: ठीक नहीं जानते)। यह भगवान् की महिमा ही है, जिससे लोक में यह ब्रह्मचक्र घूम रहा है, लेकिन वह ब्रह्म भी पूर्वकथित विभिन्न कारणों का अधिष्ठान ही बन सका, कारण नहीं। भाष्यकार कहते हैं कि ब्रह्म न कारण है, न अकारण, न कारण-अकारण उभयरूप है, नदोनों से भिन्न है। अद्वितीय परमात्मा का कारणत्व-उपादान अथवा निमित्त स्वत: कुछ भी नहीं है। इस प्रकार, औपनिषदिक-चिन्तन में कारण क्या है ? यह निश्चय नहीं हो सका। गीता का दृष्टिकोण गीता में कालवाद, स्वभाववाद, प्रकृतिवाद, दैववाद एवं ईश्वरवाद के संकेत मिलते हैं। गीताकार इन सब सिद्धान्तों को यथावसर स्वीकार करके चलता है। वह कभी काल को, कभी प्रकृति को, कभी स्वभाव को, तो कभी पुरुष अथवा ईश्वर को कारण मानता है। यद्यपि गीताकार पूर्ववर्ती विचारकों से इस बात में तो भिन्न है कि इनमें से वह किसी एक ही सिद्धान्त को मानकर नहीं चलता, वरन् यथावसर सभी के मूल्य को स्वीकार करके चलता है; तथापि उसमें स्पष्ट समन्वय काअभाव-सा लगता है और इस तरह सभी सिद्धान्त पृथक् से रह जाते हैं। फिर भी, इतना अवश्य कहा जा सकता है कि गीताकार अन्तिम कारण के रूप में ईश्वर को ही स्वीकार करता है। बौद्ध-दृष्टिकोण श्रमण-परम्परा में इन विभिन्न वादों का निराकरण किया गया एवं ब्रह्म के स्थान पर कर्म कोही इसका कारण माना गया। बुद्ध और महावीर-दोनों ने कर्म कोही ईश्वर के स्थान पर प्रतिष्ठित किया और जगत् के वैचित्र्य का कारण कर्म है, ऐसी उद्घोषणा की। ईश्वरवादीदर्शनों में जो स्थान ईश्वर का है, वही स्थान बौद्ध और जैन-दर्शन में कर्म-सिद्धान्त ने ले लिया है। अंगुत्तरनिकाय में भगवान् बुद्ध ने विभिन्न कारणतावादी और अकारणतावादीदृष्टिकोणों की समीक्षा की है। जगत् के व्यवस्था-नियम के रूप में बुद्ध स्पष्टरूप से कर्मसिद्धान्त को स्वीकार करते हैं। सुत्तनिपात में स्वयं बुद्ध कहते हैं, किसी का कर्म नष्ट नहीं होता, कर्ता उसे प्राप्त करता ही है। पापकर्म करनेवाला परलोक में अपने को दुःख में पड़ा पाता है। संसार कर्म से चलता है, प्रजा कर्म से चलती है। रथ का चक्र जिस प्रकार आणी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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