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________________ आत्मा की स्वतन्त्रता 325 तो उसकी व्याख्या नियतिवादके द्वारा सम्भव ही नहीं है। भविष्य के सम्बन्ध में नियतिवादीधारणा निराशा, नीरसता और निष्क्रियता के द्वारा प्रगति के सारे द्वारों को अवरुद्ध कर देती है। भावी को सुखद एवं समृद्ध बनाने के लिए पुरुषार्थवाद के प्रति निष्ठा आवश्यक है। जीवन का स्वर्णिम सूत्र है- भूत के सम्बन्ध में भाग्यवादी (नियतिवादी) रहो औरभावी के सम्बन्ध में पुरुषार्थवादी। 12. कर्म-नियम और आत्मशक्ति कर्म-नियम और आत्मा में कौन बलवान् है, यह प्रश्न प्राचीनकाल से ही विचारणीय रहा है। यद्यपि कर्म हमारे संस्कारों और हमारे जीवन जीने के ढंग को प्रभावित करता है; लेकिन कर्मों का कर्ता आत्मा है। आत्मा स्वयं ही अपने कर्मों से बद्ध होता है, अत: यह मानना होगा कि उस बन्धन से मुक्त होने की सामर्थ्य भी आत्मा में ही है। उपाध्याय अमरमुनिजी लिखते हैं कि अनन्त गगन में मेघों की कितनी ही घनघोर घटा छा जाए, फिर भी वे सूर्य की प्रभा का सर्वथा विलोपनहीं कर सकतीं। बादलों में सूर्य को आच्छादित करने की शक्ति तो है, किन्तु उसके आलोक को सर्वथा विलुप्त करने की शक्ति उनमें नहीं है। यही बात आत्मा के सम्बन्ध में है। कर्म में आत्मा के सहज स्वाभाविक गुणों को आच्छादित करने की शक्ति है, इसमें जरा भी असत्य नहीं है, पर आत्मा को आच्छादित करनेवाले कर्म कितने ही प्रगाढ़ क्यों न हों, उसमें आत्मा के एक भी गुण को मूलत: नष्ट करने की शक्ति नहीं है, जैसे सूर्य स्वयं मेघों को उत्पन्न करता है, उनसे आच्छादित हो जाता है और फिर स्वयं ही उन कर्मों को निर्जरा के द्वारा छिन्न-भिन्न भी कर डालता है। वस्तुतः, कर्मशक्ति महत्वपूर्ण है, लेकिन वह आत्मशक्तिकी अपेक्षा अधिक बलवान् नहीं है। कर्म संकल्पजन्य हैं और इसलिए वे आत्मा से ही उत्पन्न होते हैं। कर्मों को जो भी कुछ शक्ति मिलती है, इसके मूल में हमारे ही संकल्प होते हैं, अत: यह मानना युक्तिसंगत नहीं कि कर्मशक्ति आत्मशक्ति से बलवान् है। आत्मा अपने पुरुषार्थ के द्वारा कर्मों की नियामकता से ऊपर उठ सकता है। कुछ लोगों की यह मान्यता है कि कर्मावरण के हल्के होने पर आत्मविशुद्धि होती है, लेकिन यह धारणा भ्रान्त है। अमरमुनिजी लिखते हैं कि कर्म टूटें, तो आत्मा विशुद्ध हो, यह सिद्धान्त नहीं है, बल्कि सिद्धान्त यह है कि आत्मा का शुद्ध पुरुषार्थ जागे, तो कर्म हल्के हों। इस प्रकार कर्म-नियम के ऊपर आत्मशक्ति का स्थान है। 13. आत्म-निर्धारणवाद विभिन्न नियतिवादी तत्त्व हमारे व्यक्तित्व के निर्माण एवं निर्धारण के बाह्य-कारण या निमित्त अवश्य हैं, लेकिन उनको स्वरूप प्रदान करने वाला केन्द्रीय-तत्त्व तो हमारी चेतना है। डॉ. यदुनाथ सिन्हा लिखते हैं, मानवीय-कर्म अंशत: स्वतंत्र होते हैं तथा अंशत: गत जीवनों में संचित पुण्य-पापअथवा धर्म-अधर्म से निर्धारित होते हैं। संकल्पशक्ति के Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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