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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
बौद्ध दर्शन में भी इसे माना गया है। 27 डॉ. रामानन्द तिवारी पुनर्जन्म के पक्ष में लिखते हैं कि
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एक जन्म के सिद्धान्त के अनुसार चिरन्तन आत्मा और नश्वर शरीर का सम्बन्ध एक कालविशेष में आरम्भ होकर एक काल- विशेष में ही अन्त हो जाता है, किन्तु चिरन्तन का कालिक-सम्बन्ध अन्याय (तर्कविरुद्ध) है और इस (एक जन्म के) सिद्धान्त से उसका कोई समाधान नहीं है - पुनर्जन्म का सिद्धान्त जीवन की एक न्यायसंगत और नैतिक व्याख्या देना चाहता है। एक- जन्म - सिद्धान्त के अनुसार जन्मकाल में भागदेयों के भेद को अकारण एवं संयोगजन्य मानना होगा | 28
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कर्मसिद्धान्त और पुनर्जन्म
डॉ. मोहनलाल मेहता कर्मसिद्धान्त के आधार पर पुनर्जन्म के सिद्धान्त का समर्थन करते हैं। उनके शब्दों में, कर्मसिद्धान्त अनिवार्य रूप से पुनर्जन्म के प्रत्यय से संलग्न है, पूर्ण विकसित पुनर्जन्म-सिद्धान्त के अभाव में कर्मसिद्धान्त अर्थशून्य है । 29 आचारदर्शन के क्षेत्र में यद्यपि पुनर्जन्म-सिद्धान्त और कर्मसिद्धान्त एक-दूसरे के अति निकट हैं, फिर भी धार्मिकक्षेत्र में विकसित कुछ आचारदर्शनों ने कर्मसिद्धान्त को स्वीकार करते हुए भी पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं किया है। कट्टर पाश्चात्य निरीश्वरवादी- दार्शनिक नित्शे ने कर्मशक्ति और पुनर्जन्म पर जो विचार व्यक्त किए हैं, वे महत्वपूर्ण हैं । वे लिखते हैं, कर्म-शक्ति के जो हमेशा रूपान्तर हुआ करते हैं, वे मर्यादित हैं तथा काल - अनन्त हैं, इसलिए कहना पड़ता है कि जो नामरूप एक बार हो चुके हैं, वही फिर आगे यथापूर्व कभी न कभी अवश्य उत्पन्न होते ही हैं। 30
10. ईसाई और इस्लाम धर्मो का दृष्टिकोण
ईसाई और इस्लाम - आचारदर्शन यह तो मानते हैं कि व्यक्ति अपने नैतिक- शुभाशुभ कृत्यों का फल अनिवार्य रूप से प्राप्त करता है और यदि वह अपने कृत्यों के फलों को इस जीवन में पूर्णतया नहीं भोग पाता है, तो मरण के बाद उनका फल भोगता है, लेकिन फिर भी वे पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते हैं। उनकी मान्यता के अनुसार व्यक्ति को सृष्टि के अन्त
अपने कृत्यों की शुभाशुभता के अनुसार हमेशा के लिए स्वर्ग या किसी निश्चित समय के लिए नरक में भेज दिया जाता है, वहाँ व्यक्ति अपने कृत्यों का फल भोगता रहता है। इस प्रकार, वे कर्मसिद्धान्त को मानते हुए भी पुनर्जन्म को स्वीकार नहीं करते हैं। 11. उक्त दृष्टिकोण की समीक्षा
1. जो विचारणाएँ कर्मसिद्धान्त को स्वीकार करने पर भी पुनर्जन्म को नहीं मानती हैं, वे इस तथ्य की व्याख्या करने में समर्थ नहीं हो जाती हैं कि वर्तमान जीवन में जो नैसर्गिक वैषम्य है, उसका कारण क्या है ? क्यों एक प्राणी सम्पन्न एवं प्रतिष्ठित कुल में जन्म लेता है,
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