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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
मौन रहना ही अधिक उपयुक्त है। बुद्ध ने आनन्द के समक्ष अपने मौन का कारण स्पष्ट कर दिया था कि वे यदि हाँ कहते, तोशाश्वतवादहो जाता है और ना कहते, तो उच्छेदवादहो जाता। 6. जैन और बौद्ध-दृष्टिकोण की तुलना
महावीर तथा बुद्ध-दोनों ही आत्मा के सम्बन्ध में उच्छेदवादी एवं शाश्वतवादी एकान्तिक-दृष्टिकोणों के विरोधी हैं। दोनों में अन्तर केवल यह है कि जहाँ महावीर विधेयात्मक-भाषा में आत्मा को नित्यानित्य कहते हैं, वहाँ बुद्ध निषेधात्मक-भाषा में उसे अनुच्छेदाशाश्वत कहते हैं। बुद्ध जहाँ अनित्य-आत्मवाद और नित्य-आत्मवाद के दोषों को दिखाकर दोनों दृष्टिकोणों को अस्वीकार कर देते हैं, वहाँ महावीर उन एकान्तिकमान्यताओं के अपेक्षामूलक समन्वय के आधार पर उनके दोषों का निराकरण करने का प्रयत्न करते हैं।
बुद्ध ने आत्मा के परिवर्तनशील पक्ष पर अधिक बल दिया और इसी आधार पर उसे अनित्य भी कहा और यह भी बताया कि इस परिवर्तनशील चेतना से स्वतन्त्र कोई आत्मा नहीं है या क्रिया से भिन्न कारक की सत्ता नहीं है। बुद्ध अविच्छिन्न, परिवर्तनशील चेतनाप्रवाह के रूप में आत्मा को स्वीकार करते हैं, लेकिन बुद्ध का यह मन्तव्य जैन-विचारणा से उतना अधिक दूर नहीं है, जितना कि समझा जाता है। जैन-विचारणा द्रव्य-आत्मा की शाश्वतता पर बल देकर यह समझती है कि उसका मन्तव्य बौद्ध-विचारणा का विरोधी है, लेकिन जैन-विचारणा में द्रव्य का स्वरूप क्या है ? यही न कि जो गुण और पर्याय से युक्त हैब वह द्रव्य है।
जैन-विचारणा में द्रव्य पर्याय से अभिन्न ही है और यदि इसी अभिन्नता के आधार पर यह कहा जाए कि क्रिया (पर्याय) से भिन्न कर्ता (द्रव्य) नहीं है, तो उसमें कहाँ विरोधरह जाता है ? द्रव्य और पर्याय, ये आत्मा के सम्बन्ध में दो दृष्टिकोण हैं, दो विविक्त सत्ताएँ नहीं हैं। उनकी इस अभिन्नता के आधार पर यह भी कहा जा सकता है कि जैन-दर्शन का आत्मा भी सदैव ही परिवर्तनशील है। फिर, अविच्छिन्न चेतना-प्रवाह (परिवर्तनों की परम्परा) की दृष्टि से आत्मा को शाश्वत मानने में बौद्ध-दर्शन को भी कोई बाधा नहीं है, क्योंकि उसके अनुसार भी प्रत्येक चेतन-धारा का प्रवाह बना रहता है। इस आधार पर कहा जा सकता है कि बुद्ध केमन्तव्य में भी चेतना-प्रवाहया चेतना-परम्परा की दृष्टि से आत्मा नित्य (अनुच्छेद) है और परिवर्तनशीलता की दृष्टि से आत्मा अनित्य (अशाश्वत) है। जैन-परम्परा में द्रव्यार्थिक-नय का आगमिक-नाम अव्युच्छिति-नय और पर्यायार्थिक-नय का व्युच्छिति नय भी है। हमारी सम्मति में अव्युच्छिति-नय का तात्पर्य है- प्रवाह या परम्परा की अपेक्षा
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