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________________ 282 जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन के मूल में जहाँ आग्रह-दृष्टि है, वहीं बौद्ध-साहित्यमें प्रयुक्त अनात्म, अनित्य, अव्याकृत, बुद्ध के मौन तथा आत्माशब्दकी सम्यक् व्याख्याका अभावभी है, अत: आवश्यक है कि इनके सम्यक् अर्थ को समझने का थोड़ा प्रयास किया जाए। 5. भ्रान्त धारणाओं का कारण अनात्म (अनत्त) का अर्थ बौद्ध-दर्शन में अत्ता' शब्द काअर्थ है- मेरा, अपना। बुद्ध जब अनात्म का उपदेश देते हैं, तो उनका तात्पर्य यह है कि इस आनुभविक-जगत् में कोई भी पदार्थ ऐसा नहीं, जिसे मेरा या अपना कहा जा सके, क्योंकि सभी पदार्थ, सभी रूप, सभी वेदना, सभी संस्कार और सभी विज्ञान (चैत्तसिक-अनुभूतियाँ) हमारी इच्छाओं के अनुरूप नहीं हैं, अनित्य हैं, दुःखरूप हैं। उनके बारे में यह कैसे कहाजा सकता है कि वे अपने हैं, अत: वे अनात्म (अपने नहीं) हैं। बुद्ध के द्वारा दिया गया वह अनात्म का उपदेश हमें कुन्दकुन्द के उन वचनों की याद दिलाता है, जिसमें उन्होंने ज्ञाता (आत्मा) का ज्ञान के समस्त विषयों से विभेद बताया है। बौद्ध-आगमों में ये ही मूलभूत विचार अनात्मवाद के उपदेश केरूप में पाए जाते हैं। इनका यह फलितार्थ नहीं मिलता है कि आत्मा नहीं है। श्रीभरतसिंह उपाध्याय का मन्तव्य है कि बुद्ध का एक भी वचन सम्पूर्ण पालि-त्रिपिटक में इस निर्विशेष अर्थ का उद्धृत नहीं किया जा सकता किआत्मा नहीं है। जहाँ उन्होंने 'अनात्मा' कहा. वहाँ पंच स्कन्धों की अपेक्षा से ही कहा है. बारह आयतनों और अठारह धातुओं के क्षेत्र को लेकर ही कहा है। इस प्रकार, बुद्ध-वचनों में अनात्म का अर्थ अपना नहीं', इतना ही है। वह सापेक्ष कथन है। इसका यह अर्थ नहीं है कि आत्मा नहीं हैं । बुद्ध ने आत्माको नशाश्वत कहा, न अशाश्वत कहा, न यह कहा कि आत्मा है, न यह कहा कि आत्मा नहीं है; केवल रूपादिपंचस्कन्धों का विश्लेषण कर यह बता दिया कि इनमें कहीं आत्मा नहीं है। बौद्ध-दर्शन के अनात्मवाद को उसके आचारदर्शन के सन्दर्भ में ही समझा जा सकता है। बुद्ध के आचारदर्शन का सारा बल तृष्णा के प्रहाण पर है। तृष्णा न केवल स्थूल पदार्थों पर होती है, वरन् सूक्ष्म आध्यात्मिक-पदार्थोंपरभी हो सकती है। वहअस्तित्वकीभी हो सकती है (भवतृष्णा) और अनस्तित्वकीभी (विभवतृष्णा), अत: उस तृष्णा के सभी निवेशनों (आश्रय-स्थानों) को उच्छिन्न करने के लिए बुद्ध ने अनात्म का उपदेश दिया। वस्तुतः, अनात्मवाद विनम्रता की आत्यन्तिककोटि, अनासक्तिकी उच्चतम अवस्था और आत्मसंयम की एकमात्र कसौटी है। इस अनात्म का उपदेश उन्होंने तृष्णा के प्रहाण एवं ममत्वके विसर्जन के लिए दिया।यदि उन्हें अनात्म का अर्थ 'आत्मा नहीं' अभिप्रेत होता, तो वे उच्छेदवाद का विरोध ही क्यों करते ? बुद्ध ने उच्छेदवाद को अस्वीकार किया है, अत: बौद्ध-मन्तव्य में अनात्म का अर्थ 'आत्मा नहीं है' करना अनुचित है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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