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जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
अतिरिक्त देखने की सामर्थ्य भी होती है। पंचेन्द्रिय अमनस्क-जीवों में इन आठ शक्तियों के साथ-साथ श्रवण-शक्ति भी होती है और समनस्क पंचेन्द्रिय जीवों में इनके अतिरिक्त मनःशक्ति भी होती है। इस प्रकार, जैन-दर्शन में कुल दस जैविक-शक्तियाँ या प्राणशक्तियाँ मानी गई हैं। हिंसा-अहिंसा के अल्पत्व और बहुत्व आदि का विचार इन्हीं जैविक-शक्तियों की दृष्टि से किया जाता है। जितनी अधिक प्राण-शक्तियों से युक्त प्राणी की हिंसा की जाती है, वह उतनी ही भयंकर समझी जाती है। गतियों के आधार पर जीवों का वर्गीकरण
जैन-परम्परा में गतियों के आधार पर जीव चार प्रकार के माने गए हैं- (1) देव, (2) मनुष्य, (3) पशु (तिर्यञ्च) और (4) नारक। जहाँ तक शक्ति और क्षमता का प्रश्न है, देव का स्थान मनुष्य से ऊँचा माना गया है, लेकिन जहाँ तक नैतिक-साधना की बात है, जैन-परम्परा मनुष्यजन्म को ही सर्वश्रेष्ठ मानती है। उसके अनुसार, मानवजीवन ही ऐसा जीवन है, जिससे मुक्ति या नैतिक-पूर्णता प्राप्त की जा सकती है। जैन-परम्परा के अनुसार केवल मनुष्य ही सिद्ध हो सकता है, अन्य कोई नहीं। बौद्ध-परम्परा के अनुसार एक देव बिना मानव-जन्म ग्रहण किए देवगति से ही निर्वाण-लाभ कर सकता है, जबकि जैनपरम्परा के अनुसार केवल मनुष्य ही निर्वाण का अधिकारी है। इस प्रकार, जैन-परम्परा मानवजन्मको चरम मूल्यवान् बना देती है।
इस प्रकार, आत्मा के स्वरूप का नैतिक-दृष्टि से विवेचन करने के पश्चात् अगले अध्याय में हम आत्माकीअमरता की नैतिक-मान्यता के सम्बन्ध में विचार करने का प्रयत्न करेंगे।
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सन्दर्भ ग्रंथ1. बृहदारण्यकोपनिषद्, 1/3/28. 2. विसुद्धिमग्ग, उद्धृत-बौद्ध-दर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, प्रथम भाग, पृ. 511.
विशेषावश्यकभाष्य, 1575. वही, 1571. वही, 1557. जैन-दर्शन, पृ. 154. आचारांग, 1/5/5/166. ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य, 3/1/7.
वही, 1/1/2. 10. ब्रह्मसूत्र,शांकरभाष्य, 3/2/21; तुलना कीजिए-आचारांग, 1/5/5.
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