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आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
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जैन-नीतिशास्त्र में 'श्रद्धा' के अर्थ में रूढ़ हो गई। श्रद्धा के अर्थ में 'दर्शन' जैनआचारमीमांसा का आधार है। यदि आत्मा में अनुभूत्यात्मक-क्षमतानहोगी, तो नैतिकमूल्यों का बोध सम्भव नहीं होगा। नैतिक-मूल्य बौद्धिक नहीं, अनुभूत्यात्मक हैं। बिना अनुभूत्यात्मक-क्षमता के उनकी अनुभूति कैसे होगी? नैतिक-आदर्श का बोध इसी पर निर्भर है। आत्मा की इस क्षमता को दृष्टि या निष्ठा के रूप में भी दखा जा सकता है। साधना के क्षेत्र में इसकी अन्तिम परिणति निर्विकल्प-समाधि (शुक्लध्यान) में आत्मसाक्षात्कार की अवस्था मानी गई है। (स) आत्म-निर्णयकीशक्ति (वीर्य)
चेतना (उपयोग) का तीसरा पक्षसंकल्पात्मक माना गया है। इसे आत्मनिर्णय. की शक्ति भी कह सकते हैं। यह एक प्रकार से संकल्प-शक्ति (वीर्य) है। यदि आत्मा में आत्मनिर्णय की क्षमता (संकल्पस्वातन्त्र्य) नहीं मानी जाएगी, तो नैतिक-उत्तरदायित्व की व्याख्या सम्भव नहीं होगी। आत्मनिर्णय की शक्ति नैतिक-जीवन के लिए आवश्यक है। उसके बिना नैतिक-आदेशभी बाह्य हो जाएगा और बाह्य नैतिक-आदेशया बाह्य नैतिकबाध्यता (External Moral Sanction) नैतिक-जीवन को सच्चा अर्थ नहीं देते हैं। नैतिक-बाध्यता या नैतिक-आदेश को आन्तरिक होने के लिए संकल्प-स्वातन्त्र्य और नैतिक-उत्तरदायित्व के लिए आत्मा में आत्मनिर्णय की शक्ति आवश्यक है।
इस प्रकार, हम देखते हैं कि जैन-दर्शन में उपयोग (चेतना) लक्षण के अन्तर्गत ज्ञानोपयोग के रूप में नैतिक-विवेकक्षमता को, दर्शनोपयोग के रूप में मूल्यात्मकअनुभूति की क्षमता को स्वीकार किया है। अनन्तचतुष्टय की दृष्टि से आत्मा की ये तीनों शक्तियाँ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्य के अन्तर्गत आ जाती हैं। ये तीनों शक्तियाँ आत्मा में पूर्ण रूप में विद्यमान हैं, उसके स्वलक्षण हैं, यद्यपि हमारे सीमित व्यक्तित्वों में वे आवरित या कुण्ठित हैं। नैतिक-जीवन का लक्ष्य इनको पूर्णता की दिशा में विकसित करना है। आनन्द
जैन-दर्शन में आनन्द (सौख्य) को भी आत्मा का स्वलक्षण माना गया है। यदि आनन्द आत्मा का स्वलक्षण नहीं माना जाएगा, तो नैतिक-आदर्श शुष्क हो जाएगा तथा नैतिक-जीवन में कोई भावात्मक-पक्ष नहीं रहेगा। आनन्द आत्मा का भावात्मक-पक्ष है। यदि आनन्द को आत्मा का स्वलक्षण न मानकर आत्मासे बाह्य माना जाएगा, तो नैतिकजीवन का साध्य भी आत्मा से बाह्य होगाऔर नैतिकता आन्तरिक नहीं होकर बाह्य तथ्यों पर निर्भर होगी। यदिआनन्दक्षमता आत्मगत न होकर वस्तुगत होगी, तो नैतिकता भौतिक सुखों की उपलब्धि पर निर्भर होगी। फिर, अनुभवात्मक-जीवन में भी हम देखते हैं कि
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