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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
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पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक-सुखवाद से तुलना करने पर हमें इसकी एक विशिष्टता का परिचय मिलता है। पाश्चात्य मनोवैज्ञानिक-सुखवादअपने सिद्धान्त कामनोवैज्ञानिक आधार पाकर मात्र यही निष्कर्ष निकालताहै कि व्यक्ति के लिए सुख का अनुसरण करना अनिवार्य है, लेकिन सुख के सम्पादन की इस स्पर्धा में प्रत्येक प्राणी का सुख दूसरे प्राणियों के सुखों के नाश पर निर्भर हो, तो क्या करना नैतिक होगा? इस प्रश्न का उत्तर वहाँ नहीं मिलता। सुखों का अनुसरण जितना स्वाभाविक है, उतना ही स्वाभाविक यह भी है कि पाश्चात्य-परम्परा में जिन भौतिक सुखों के अनुकरण का समर्थन किया गया है, उनको लेकर प्राणियों के हितों में ही परस्पर संघर्ष होता है। यदि मेरा सुख किसी दूसरे व्यक्ति के सुख के नाशपर निर्भर हो, तो क्या मेरे लिए उस सुख का अनुकरण उचित या नैतिकहोगा? यदिस्वार्थ-सुखवाद के सिद्धान्तको मानकर सभी लोग दूसरे के सुखों का हनन करते हुए स्वयं के सुख का सम्पादन करने में लग जाएं, तो न तो समाज में सुख और शान्ति बनी रहेगीऔरन व्यक्ति ही सुख प्राप्त कर पाएगा, क्योंकि दूसरे व्यक्ति भी अपना सुख भोगते हुए उसके सुख में बाधा डालेंगे।
जैन-नैतिकता सुख के अनुसरण की मान्यता को स्वीकार करते हुए व्यक्ति को यह तो अधिकार प्रदान करती है कि वह स्वयं के सुख का अनुसरण करे, लेकिन उसे अपने वैयक्तिक-सुख की उपलब्धि के प्रयास में दूसरे के सुखों एवं हितों का हनन करने का अधिकार नहीं है। यदि तुम्हारे सुख के अनुसरण के प्रयास में दूसरे के सुख का हनन अनिवार्य है, तो तुम्हें ऐसे सुख का अनुसरण नहीं करना चाहिए, किन्तु इस आधार पर कोई यह आक्षेप कर सकता है कि ऐसी अवस्था में यह अपनी सुखवादी-धारणा से दूर हो जाती है। जैन-नैतिकता इस आक्षेप के प्रत्युत्तर में यह कहती है कि उस पर इस आक्षेप का आरोपण उसी दशा में होगा कि जबकि हम सुखों के भौतिक-स्वरूप की ओर ही ध्यान देंगे, लेकिन जैन-नैतिकता तोसुखों के आधिभौतिक और आध्यात्मिक-स्वरूपको भी स्वीकार करती है। पाश्चात्य-धारणा की मूलभूत भ्रान्ति यही है कि वह सुखों के विभिन्न स्तरों पर बल नहीं देती है और सुखों के भौतिक-स्वरूप में ऊपर उठकर उनके आध्यात्मिक-स्वरूप की ओर नहीं बढ़ती है। सुखों में पारस्परिक-संघर्ष तो उनके भौतिक-स्वरूप तक ही सीमित है।
जैन-आचारदर्शन और नैतिक-सुखवाद
नैतिक-सुखवाद की विचारधारा यह मानकर चलती है कि सुख का अनुसरण करना चाहिए या सुख ही वांछनीय है। नैतिक-सुखवाद के विचारकों में मिल प्रभृति कुछ विचारक नैतिक-सुखवाद को मनोवैज्ञानिक-सुखवाद पर आधारित करते हैं। मिल का कहना है कि कोई वस्तु या विषय काम्य है, इसका प्रमाण यह है कि लोग वस्तुत: उसकी कामना करते हैं। सामान्य सुख काम्य है, इसके लिए इसे छोड़कर कोई प्रमाण नहीं दिया जा सकता कि प्रत्येक मनुष्य सुख की कामना करता है, लेकिन सुखवाद को मनोवैज्ञानिक
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