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प्रो. गोविन्ददास माहेश्वरी का भी मैं आभारी हूँ, उनके बहुविध सहयोग को भुलाया नहीं जा सकता है।
प्राकृत भारती संस्थान के सचिव श्री देवेन्द्रराज मेहताएवं श्री विनयसागरजी काभी मैं अत्यन्त अभारी हूँ, जिनके सहयोग प्रथम संस्करणऔर इस संस्करण का पुन: यह प्रकाशन सम्भव हो सका है। आकृति ऑफसेट, उज्जैन ने जिस तत्परता और सुन्दरता से यह कार्य सम्पन्न किया है, उसके लिए उनके प्रति आभार व्यक्त करना भी मेरा कर्तव्य है। मित्रवर श्री जमनालालजीजैन ने इसकी प्रेस कापी तैयार करने में सहयोग प्रदान किया है, अत: उनके प्रति भी हार्दिक आभार प्रकट करता हूँ। मैं पार्श्वनाथ विद्याश्रम परिवार के डॉ. हरिहर सिंह, श्री मोहनलालजी, श्री मंगलप्रकाश मेहता तथा शोध छात्र श्री रविशंकर मिश्र, श्री अरुणकुमार सिंह, श्री भिखारीराम यादव और श्री विजयकुमार जैन का आभारी हूँ, जिनसे विविध रूपों में सहायता प्राप्त होती रही है। अन्त में, पूज्य पिता श्री राजमलजी शक्कर वाले, मातुश्री गंगाबाई, भाई कैलाश एवं पत्नी श्रीमती कमला जैन का भी मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होंने मुझे विद्या की उपासना का अवसर दिया। इस संस्करण का प्रुफरीडिंग श्री चैतन्य जी सोनी ने किया, अत: उनका भी आभारी हूँ।
श्रमण विद्या के प्रकाण्ड विद्वान् प्रोफेसरपं.जगन्नाथजी उपाध्याय ने हमारी प्रार्थना को स्वीकार कर एवं ग्रन्थ का समग्रतया अवलोकन कर भूमिका लिखने की कृपा की, एतदर्थ हम उनके अत्यन्त आभारी हैं।
इस सम्पूर्ण प्रयास में मेरा अपना कुछ भी नहीं है, सभी कुछ गुरुजनों का दिया हुआ है, इसमें मैं मौलिकता का भी क्या दावा करूँ ? मैंने तो अनेकानेक महापुरुषों, ऋषियों, सन्तों, विचारकों एवं लेखकों के शब्द तथा विचार-सुमनों का संचय कर माँ सरस्वती के समर्पण के हेतु इस माला का ग्रथन किया है, इसमें जो कुछ मानव के लिए उत्तम हितकारक एवं कल्याणकारक तत्त्व हैं, वे सब उनके हैं। हाँ, यह सम्भव है कि मेरी अल्पमति एवं मलिनता के कारण इसमें दोष आ गए हों, उन दोषों का उत्तरदायित्व मेरा अपना है।
यदत्र सौष्ठवं किंचित्तद्गुोरेवमेनहि। यदत्रासौष्ठवं किंचित्तन्ममैव तयोर्न हि॥
सागरमल जैन
वीर निर्वाण दिवस-दीपावली 15 नवम्बर, 1982
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