________________
भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन
ही पक्ष स्वीकार करता है, जो पारिभाषिक शब्दावली में ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग कहे
जाते हैं।
156
बटलर ने मानवप्रकृति के पूर्वोक्त चार तत्त्वों में एक आनुपूर्वी को स्वीकार किया है, जिसमें सबसे नीचे वासनाएँ हैं और सबसे ऊपर अन्तरात्मा है। जैसे पशुबल बुद्धिबल के जाता है, उसी प्रकार वासनाबल, स्वप्रेम और परहित अन्तरात्मा के अधीन हो जाते हैं । जैनन-परम्परा के अनुसार भी नैतिक-विकास की दिशा में वासनाबल क्षीण होता जाता है और कर्मों का नियमन शुद्ध राग-द्वेष से रहित आत्मा के द्वारा होने लगता है। बटलर
अन्तरात्मा ईश्वरीय- बुद्धि के रूप में जैन- परम्परा की वीतराग आत्मा से तुलनीय है। इस प्रकार, बटलर के नैतिक-अन्तरात्मवाद और जैन - परम्परा में बहुत कुछ साम्य खोजा जा सकता है।
फिर भी, बटलर के सिद्धान्त की मूलभूत कमजोरी यह है कि अन्तरात्मा जब दो विपरीत आदेश देती है, तो उनके अन्तर्विरोध को दूर करना कठिन हो जाता है। किंकर्तव्यविमूढ़ता की अवस्था में बटलर की अन्तरात्मा नैतिक समस्या का समाधान प्रस्तुत नहीं करती।
( उ ) मनोवैज्ञानिक - अन्तरात्मवाद" - मनोवैज्ञानिक- अन्तरात्मवाद के प्रवर्त्तक मार्टिन्यू हैं। मार्टिन्यू ने अपने सिद्धान्त का बहुत कुछ विकास बटलर के अन्तरात्मवाद से ही किया है, फिर भी उन्होंने उसे सुदृढ़ मनोवैज्ञानिक आधारों पर स्थापित करने का प्रयास किया है। मार्टिन्यू के अनुसार, अन्तरात्मा ही शुभाशुभ का निर्णायक है। वह शुभाशुभ का विधान नहीं करता है, वरन् उस विधान को दिखाता है, जो कर्मों को शुभाशुभ बनाता है। उसके अनुसार, अन्तरात्मा कर्मों के अच्छे-बुरे तारतम्य का मात्र द्रष्टा है। सभी कर्मों के स्रोत होते हैं और इन स्रोतों में ही उनके अच्छे-बुरे तारतम्य का एक विधान है। मार्टिन्यू के अनुसार, कर्मप्रेरक दो प्रकार के हैं- (1) प्राथमिक और (2) गौण । प्राथमिक कर्मप्रेरक चार प्रकार के हैं- (1) प्राथमिक - प्रवर्त्तक, जिनमें क्षुधा, मैथुन एवं पाशविक - सक्रियताएँ अर्थात् आराम की प्रवृत्ति हैं, (2) प्राथमिक-विकर्षण, जिनमें द्वेष, क्रोध और भय समाहित हैं, (3) प्राथमिक-आकर्षण - यह रागभाव या आसक्ति है, इसमें वात्सल्य (पत्रैषणा), समाजप्रेम (लोकैषणा) और करुणा या सहानुभूति के तत्त्व समाहित हैं, (4) प्राथमिकभावनाएँ, जिनमें जिज्ञासा, विस्मय और श्रद्धा का समावेश है। ये सत्य, सुन्दर और शिव (कल्याण) की ओर प्रवृत्त करते हैं। ये ज्ञान, अनुभूति और कर्म के प्रेरक हैं। दूसरे गौण कर्मप्रेरक भी चार प्रकार के हैं - (1) गौण प्रवृत्तियाँ - जिनमें स्वादप्रियता, कामुकता, लोभ और मद समाहित हैं, (2) गौण विकर्षण- इनमें मात्सर्य, प्रतिकार और शंकाशीलता समाविष्ट हैं (3) गौण आकर्षण- इनमें स्नेह, सामाजिकता और दयाभाव का समावेश है,
Jain Education International
we
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org