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भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त
अनुवर्तन है और दुर्गुण इन नियमों का उल्लंघन है। मानवप्रकृति से कर्म की संवादिता ही सद्गुण है और कर्म की विसंवादिता दुर्गुण है, लेकिन बटलर इस मानवप्रकृति को मानव की यथार्थ प्रकृति नहीं मानते । यदि हम मानवप्रकृति का अर्थ मानव की यथार्थ प्रकृति करेंगे, तो वह जो करता है, उस सबको शुभ समझना होगा, अतः हमें यहाँ यह स्पष्ट रूप से जान लेना चाहिए कि बटलर के अनुसार मानवप्रकृति का अर्थ मानव की यथार्थ प्रकृति नहीं, वरन् आदर्श प्रकृति है। मानव की आदर्श प्रकृति के अनुरूप जो कर्म होगा, वह शुभ और उसके विपरीत जो कर्म होगा, वह अशुभ माना जाएगा। बटलर के इस दृष्टिकोण का समर्थन जैनपरम्परा भी करती है । आत्मा की जो विभाव- अवस्थाएँ हैं या जो विसंवादी - अवस्थाएँ हैं, ही अशुभ है और इसके विपरीत आत्म की जो स्वभाव - अवस्था या संवादी - अवस्था है, वह शुभ या शुद्ध अवस्था है। जो कर्म आत्मा को स्वभावदशा की ओर ले जाते हैं, वे ही शुभ या शुद्ध कर्म हैं और जो कर्म आत्मा को विभावदशा की ओर ले जाते हैं, वे अशुभ हैं। बटलर ने मानवप्रकृति के चार तत्त्व माने हैं- (1) वासना, (2) स्वप्रेम, (3) परहित और (4) अन्तरात्मा । जैन दर्शन के अनुसार मानवप्रकृति के दो ही तत्त्व माने जा सकते हैं- (1) वासना या कषायात्मा और (2) उपयोग या ज्ञानात्मा। बटलर के अनुसार, इन सबमें अन्तरात्मा ही नैतिक जीवन का अन्तिम निर्णायक-तत्त्व है। बटलर ने इसको प्रशंसा और निन्दा करने वाली बुद्धि, नैतिक-बुद्धि, नैतिक- इन्द्रिय और ईश्वरीय- बुद्धि भी कहा है। यही हमारी अन्तरात्मा का स्थायी भाव और हृदय का प्रत्यक्ष भी है। बटलर के अनुसार, अन्तरात्मा के दो पहलू हैं- (1) शुद्ध ज्ञान और (2) सर्वाधिकारिता । सर्वाधिकारी होने के कारण वह क्रियाप्रेरक और सुधारक भी है और शुद्ध ज्ञानमय होने के कारण वह कर्मों के औचित्य और अनौचित्य का विवेक भी करता है तथा सत्कर्म और सुख में एवं असत्कर्म और दुःख में एक निश्चित सम्बन्ध भी देखता है ।
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बटलर के उपर्युक्त दृष्टिकोण की जैन दर्शन से तुलना करने पर कहा जा सकता है कि ज्ञानमय आत्मा ही नैतिक जीवन का अन्तिम निर्णायक तत्त्व है। जैन दार्शनिकों ने इसे आवश्यक माना है कि नैतिक-विवेक करते समय आत्मा को राग और द्वेष की भावनाओं से ऊपर उठा हुआ होना चाहिए। राग और द्वेष से ऊपर उठी हुई आत्मा जहाँ एक ओर सन्मार्ग की प्रेरक है, वहीं यथार्थ नैतिक निर्णय करने में सक्षम भी है। राग और द्वेष की वृत्तियों से अलग हटकर आत्मा जब कोई भी विवेकपूर्ण निर्णय करता है, अथवा कर्म करता है, तो वह शुभ होता है। इसके विपरीत, कषाय या राग-द्वेष से प्रभावित होकर कोई निर्णय करता है, तो वह अशुभ होता है। जैन- दार्शनिकों ने अन्तरात्मा में विवेक और पुरुषार्थ (वीर्य) - दोनों को स्वीकार किया है जो कि बटलर के शुद्ध और सर्वाधिकारिता के समान है। जैन दर्शन भी बटलर के समान आत्मा के ज्ञानात्मक तथा भावात्मक (दर्शन) – दोनों
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