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________________ भारतीय और पाश्चात्य नैतिक मानदण्ड के सिद्धान्त 153 देता है। इस सम्प्रदाय के विचारकों में शेफ्ट्सबरी, हचिसन और जॉन रस्किन प्रमुख हैं। ये सब विचारक इस बात में एकमत हैं किशुभ और अशुभ का अन्तरात्मा में प्रत्यक्षीकरण होता है। विचार नहीं, वरन् अनुभूति का भावही शुभाशुभ का निर्णय करते हैं। शेफ्ट्सबरी ने तीन प्रकार की भावनाएँ मानी हैं- (1) अस्वाभाविक या असामाजिक-भावनाएँ, जिनमें द्वेष, ईयां एवं निर्दयता आदि हैं, (2) स्वाभाविक या सामाजिक-भावनाएं, जिनमें दया, परोपकार, वात्सल्य, मैत्री इत्यादि हैं और (3) आत्मभावनाएँ, जिनमें आत्मप्रेम, जीवनप्रेम इत्यादि हैं। तुलनात्मक दृष्टि से इन तीनों प्रकार की भावनाओं की तुलना जैन-दर्शन के तीन उपयोगों से की जा सकती है। जैन-दर्शन के अनुसार निम्न तीन उपयोग हैं- (1) अशुभोपयोग, (2) शुभोपयोग और (3) शुद्धोपयोग। अशुभोपयोग असामाजिक या अस्वाभाविक-भावना के समकक्ष है। दोनों के अनुसार इसमें द्वेष आदि वृत्तियाँ होती हैं। इसी प्रकार, शभोपयोग स्वाभाविक या सामाजिक-भावनाओं के समान है। दोनों ही विचारणाएँ इसमें प्रशस्त राग-भाव से युक्त लोककल्याण को स्वीकार करती हैं। आत्मभावनाओं की तुलना शुद्धोपयोग से की जा सकती है, यद्यपि इस सम्बन्ध में दोनों में अधिक निकटता नहीं है, क्योंकि शेफ्ट्सबरी ने आत्मभावनाओं में स्वार्थ और संग्रहभावना को भी स्थान दिया है। फिर भी, किसी अर्थ में शेफ्ट्सबरी और जैन-विचारणा में कुछ विचारसाम्य अवश्य परिलक्षित होता है। ___ हचिसन नैतिक-इन्द्रियवाद के दूसरे प्रमुख विचारक हैं। उनके सिद्धान्तों के प्रमुख तथ्य हैं- (1) जन्मजात-प्रत्यय, (2) परोपकार-भावना और (3) शान्त प्रेरक। इन्हें उन्होंने आत्मप्रेम, परोपकार और नैतिक-इन्द्रिय कहा है। हचिसन के अनुसार शुभ या सद्गुण सुखानुभूति के पूर्ववर्ती हैं और इसी प्रकार परोपकार की भावना वैसी ही स्वाभाविक और सार्वभौमिक है, जैसे भौतिक जगत् में गुरुत्वाकर्षण का नियम। हचिसन के उपर्युक्त सिद्धान्तों की जैन-दर्शन से तुलना करते समय यह कहा जा सकता है कि दोनों के अनुसार नैतिक-प्रत्यय जन्मजात हैं, अर्जित नहीं। शुभ और अशुभ का निर्माण हमारी भावनाओं और स्वीकृतियों से नहीं होता, वरन् उनके आधार पर हमारी भावनाएँ बनती हैं। जिस प्रकार हचिसन परोपकार-भावना को स्वाभाविक मानता है, उसी प्रकार जैन-दर्शन भी उसे जीव का स्वभाव मानता है।” हचिसन ने भावनाओं को दो वर्गों में बांटा है- पहली शान्त और दूसरी अशान्त। शान्त और व्यापक भावनाएँ श्रेयस्कर हैं। हचिसन के इस विचार का समर्थन न केवल जैन-दर्शन वरन् अन्य भारतीय-दर्शन भी करते हैं। रस्किन के अनुसार नैतिक-इन्द्रिय रसेन्द्रिय है। रसना ही एकमात्र नैतिकता है। पहला और अन्तिम निर्णायक प्रश्न है, आप क्या पसन्द करते हैं ? आप जो पसन्द करते हैं, मुझे बताएँ और तब मैं बता दूंगा कि आप क्या हैं।' रस्किन के अनुसार व्यक्ति की रुचि ही Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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