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________________ 126 भारतीय आचारदर्शन एक तुलनात्मक अध्ययन गीता के आचारदर्शन को हेतुवाद का समर्थक मानते हैं। वे लिखते हैं, 'कर्म छोटे-बड़े हों या बराबर हों, उनमें नैतिक-दृष्टि से जो भेद हो जाता है, वह कर्ता के हेतु के कारण ही होता है। (गीता में) भगवान् ने अर्जुन से यह सोचने को नहीं कहा कि युद्ध करने से कितने मनुष्यों का कल्याण होगा और कितने लोगों की हानि होगी, बल्कि अर्जुन से भगवान् यही कहते हैं कि इस समय यह विचार गौण है कि तुम्हारे युद्ध करने से भीष्म मरेंगे या द्रोण । मुख्य बात यही है कि तुम किस बुद्धि (हेतु या उद्देश्य) से युद्ध करने को तैयार हुए हो। यदि तुम्हारी बुद्धि स्थितप्रज्ञ के समान शुद्ध होगी और उस पवित्र बुद्धि से अपना कर्त्तव्य करोगे, तो फिर चाहे भीष्म मरे या द्रोण, तुम्हें उसका पाप नहीं लगेगा। गीता में कांट के समान संकल्प को ही समस्त कार्यों का मूल कहा गया है। आचार्य शंकर ने गीता-भाष्य में कहा है, 'सभी कामनाओं का मूल संकल्प है।' आचार्य शंकर ने मनुस्मृति (2/3) तथा महाभारत के आधार पर भी इसे सिद्ध किया है। महाभारत के शान्ति-पर्व में कहा है, 'हे काम! मैं तेरे मूल को जानता हूँ। तू नि:संदेह 'संकल्प' से ही उत्पन्न होता है। मैं तेरा संकल्प, नहीं करूँगा, अत: फिर तू मझे प्राप्त नहीं होगा। इन्हीं शब्दों में यही तथ्य बौद्ध-ग्रन्थ महानिद्देसपालि में भी वर्णित है।'14 अर्जुन के लिए युद्ध के औचित्य का समर्थन करते समय गीता कर्म के नैतिकमूल्यांकन में बाह्य-परिणाम को दृष्टि से ओझल कर देती है। ऐसा प्रतीत होता है कि गीता एकान्तहेतुवाद का समर्थन करती है। फिर भी गीता के समग्र स्वरूप को दृष्टिगत रखते हुए विचार किया जाए, तो हमें अपनी इस धारणा के परिष्कार के लिए विवश होना पड़ता है। यदि कर्म का बाह्य परिणाम कोई नैतिक मूल्य नहीं रखता है, तो फिरकर्मयोग और लोकसंग्रह के लिए कर्म करते रहने के गीता के उपदेश का कोई अर्थ नहीं रह जाता। चाहे कृष्ण ने अर्जुन के द्वारा प्रस्तुत युद्ध के परिणामस्वरूप कुलक्षय और वर्णसंकरता की उत्पत्ति के विचार की उपेक्षा कर दी हो, लेकिन अन्त में उन्हें स्वयं ही यह स्वीकार करना पड़ा कि यदि मैं कर्म न करूँ, तो यह लोक भ्रष्ट हो जाए और मैं वर्णसंकर का करने वाला होऊँ तथा इस सारी प्रजा को मारने वाला बनूं।' यह क्या कृष्ण की फलदृष्टि नहीं है ? स्वयं तिलक भी गीतारहस्य में इसे स्वीकार करते हैं। उनके शब्दों में, गीता यह कभी नहीं कहती कि बाह्य-कर्मों की ओर कुछ भी ध्यान न दिया जाए। किसी मनुष्य की, विशेषकर अनजाने मनुष्य की बुद्धि की समता की परीक्षा करने के लिए यद्यपि केवल उसके बाह्य-कर्म या आचरण ही प्रधान साधन हैं; तथापि केवल इस बाह्य-आचरण द्वारा ही नीतिमत्ता की अचूक परीक्षा हमेशा नहीं हो सकती। इस प्रकार, सैद्धान्तिक-दृष्टि से हेतुवाद का समर्थन करते हुए भी गीता व्यावहारिक-दृष्टि से कर्म के बाह्य-परिणाम की उपेक्षा नहीं करती। गीता कर्मफलाकांक्षा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003607
Book TitleBharatiya Achar Darshan Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherPrachya Vidyapith Shajapur
Publication Year2010
Total Pages554
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
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