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चार भावनाएँ (four reflexion) बौद्धो में और पतंजलि के योगसूत्र में समान रूप से मानी गये है। दूसरी बात यह है कि धर्मध्यान की विवेचना करते हुए इनने उसके चार प्रकार बताए- पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत। साथ ही पिण्डस्थ ध्यान की धारणा के पाँच भेदपार्थिवी, आग्नेयी, वायवी (श्वसन), वारूणी और तत्वरूपवती बताये है। यहाँ यह उल्लेखनीय है कि ये चार प्रकार के ध्यानों में धर्म यान की पाँच प्रकार की धारणाएँ बौद्ध और हिन्दू तांत्रिक ग्रन्थों में ही पायी जाती है, प्राचीन जैन साहित्य में नही। शुभचन्द्र के बाद जैनयोग के अन्य प्रमुख आचार्य है- हेमचन्द्र । यद्यपि हेमचन्द्र ने अपने योगशास्त्र में सामान्यतः जैनों के त्रिरत्नों- सम्यग्ज्ञान, सम्यग्दर्शन और सम्यक्-चरित्र अर्थात् ज्ञानयोग, शक्तियोग और कर्मयोग का ही विवेचन किया है, लेकिन इसमें उन्होंने सम्यक्-चरित्र पर ही बहुत अधिक जोर दिया है। ध्यान के चार प्रकारो का विवेचन करते हुए उन्होंने भी पिंडस्थ, पदस्थ, रूपस्थ और रूपातीत ध्यान का वर्णन उपयुक्त पाँच धारणाओं के साथ किया हैं। लेकिन इस संदर्भ में विद्वानों का मत है कि उन्होंने ये विचार शुभचन्द्र के ज्ञानार्णव से लिये हैं। यह ग्रन्थ उनके योगशास्त्र से पहले का
है।
संक्षेप में ध्यान और धारणा के ये भेद पहले शुभचन्द्र ने हिन्दूतन्त्र से लिये और तब हेमचन्द्र ने शुभचन्द्र का अनुगमन किया। इस प्रकार इस काल में जैन योग पर अन्य योगसाधनाओं का प्रभाव सरलता से देखा जा सकता है इसकाल में अन्य योग पद्धति का जैनियों पर प्रभाव
जिनभद्र के ध्यानशतक और पूज्यपाद के समाधिशतक इसकाल की प्रारम्भिक कृतियाँ है, जिनमें हमें अन्य योग साधना पद्धतियों का प्रभाव नहीं दिखाई देता हैं। क्योंकि जैन साहित्य में ध्यानशतक एवं समाधिशतक में ही जैनों की मान्यता के अनुसार चार ध्यानों का वर्णन है। इसकाल में जैन योम पर अन्य योग पद्धतियों के प्रभाव को शुभचन्द्र और हेमचन्द्र के ग्रन्थों पर देखा जा सकता है। हरिभद्र ने अपने योग सम्बन्धी ग्रन्थों में योग साधना की विभिन्न स्थितियों का वर्णन अलग ही नामों से किया है। यह स्पष्ट है कि वे मूलतः ब्राह्मण परम्परा से सम्बद्ध रहे है, इसलिये इसमें कोई संदेह नहीं कि वे अन्य योग ग्रन्थों से प्रभावित रहे है। लेकिन एक बात बहुत ही स्पष्ट है कि वे जैन योग परम्परा के
32 : समत्वयोग और अन्य योग
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