SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 95
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ८२ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा प्रारम्भ में नव तत्त्वों की ही अवधारणा प्रमुख रही है। नव तत्त्वों की अवधारणा में सुविधा यह होती थी कि पुण्य और पाप का किसी एक में अन्तर्भाव करना आवश्यक नहीं था। वस्तुतः पुण्य और पाप मात्र आश्रव ही नहीं हैं जैसा कि उमास्वाति ने मान लिया है। वे आश्रव, बन्ध और निर्जरा तीनों के साथ जुड़े हुए थे। पुण्य और पाप का सम्बन्ध न केवल आश्रव और बन्ध से ही है अपितु उनका सम्बन्ध कर्मफल-विपाक अर्थात कर्म-निर्जरा से भी है। इसलिए आगमकारों ने नव तत्त्वों की ही अवधारणा को प्रमुखता दी । चंकि उमास्वाति पाप और पुण्य की चर्चा आश्रव के प्रसंग में अलग से कर रहे थे। इसलिए उन्होंने प्रारम्भ में सात तत्त्वों की ही चर्चा की। लेकिन सात और नव तत्त्वों की इस चर्चा को सैद्धान्तिक मतभेद नहीं माना जा सकता। क्योंकि सात मानकर भी उन्होंने पुण्य और पाप को स्वीकार तो किया ही है, चाहे उन्होंने उनकी आश्रव के भेद रूप में चर्चा की हो। पुनः तत्त्वार्थ सूत्रशैली का ग्रन्थ है अतः उससे अनावश्यक विस्तार से यथासम्भव बचने का प्रयास किया गया है। चतुर्विध मोक्षमार्ग के स्थान पर त्रिविध मोक्षमार्ग, नव तत्त्व के स्थान पर सात तत्त्व, सात नयों के स्थान पर मूल पाँच नय, तीर्थंकर नाम कर्म के बन्ध के बीस कारणों के स्थान पर सोलह कारण आदि तथ्य यही सूचित करते हैं कि उमास्वाति समास (संक्षिप्त) शैली के प्रस्तोता थेव्यास (विस्तार) शैली के नहीं। किन्तु इस आधार पर उमास्वाति दिगम्बर हैं-श्वेताम्बर नहीं, यह कहना उचित नहीं है। फिर तो कोई यह भी तर्क दे सकता है कि उमास्वाति ने पाँच नयों की चर्चा की है क्योंकि दिगम्बर परम्परा में पाँच नयों की शैली नहीं है अतः उमास्वाति दिगम्बर नहीं है। (३) तत्त्वार्थसूत्र एवं तत्त्वार्थभाष्य की श्वेताम्बर आगमों से भिन्नता दिखाते हुए पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार आदि दिगम्बर विद्वानों ने एक प्रमाण यह भी प्रस्तुत किया है कि तत्त्वार्थसूत्र में और उसके भाष्य में अधिगम के निम्न ८ अनुयोग द्वारों की चर्चा है'-सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अन्तर, भाव और अल्प-बहुत्व । इसके विपरीत श्वेताम्बर मान्य अनुयोगद्वार सूत्र में अभिगम के ९ अनुयोगद्वारों की चर्चा है। इसमें उपरोक्त १. सत्संख्या क्षेत्र स्पर्शनकालाऽन्तरभावाऽल्पबहुत्वैश्च । -तत्त्वार्थ सूत्र ११८ इनकी विवेचना हेतु देखे-तत्त्वार्थाधिगमसूत्र भाष्य ११८ २. अणुगमे नवविहे पण्णत्ते, तं जहा सन्तपथपरूवणा १ दज्वपमाण च २ खेत्त Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy