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तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ३१ जबकि पृथ्वीकाय आदि संयम के सत्रह भेद करने वाली प्रवचनसारोद्धार को निम्न गाथाएँ 'समवायांग' और 'तत्त्वार्थभाष्य' के विवरण के अनुरूप हैं
पुढवि दग अगणि मारूय वणस्राइ बि ति चउ पणिदिअज्जीवा । पेह घेह पमज्जण परिठवण अणो वई काए।
---प्रवचनसारोद्धार ६६।५५६ न केवल श्वेताम्बर परम्परा में अपितु यापनीय परम्परा में भी आगमिक आधार पर संयम के दोनों शैलियों से सत्रह भेद करने की परम्परा प्रचलित रही है। यापनीय ग्रंथ भगवतीआराधना में गाथा ४१६-१७ में जो संयम के सत्रह भेद किये गये हैं वे श्वेताम्बर मान्य 'समवायांग' के १७वें समवाय के अनुरूप ही हैं। जबकि उसी परम्परा के प्रतिक्रमण में 'सत्तरस्सविहिसु असंजमेसु' की व्याख्या करते हुए प्रभाचन्द्र ने उसकी टीका में एक ओर पृथ्वीकाय आदि संयम के सत्रह भेदों का उल्लेख किया है, वहीं दूसरी ओर पाँच आश्रव आदि के आधार पर संयम के सत्रह भेदों की चर्चा करने वाली निम्न गाथा भी प्रस्तुत की है
'पंचासवेहिं विरमणं पंचेन्दियनिग्गहो कसाय जयो तिहि दण्डेहिं य विरदि
सत्तारस्स संजया भणिदा' ।' प्रवचनसारोद्धार की उपरोक्त गाथा और दिगम्बर प्रतिक्रमण सूत्र की टीका में उल्लिखित यह गाथा समान ही है और 'प्रशमरति' प्रकरण की १७२वीं कारिका भो इनका संस्कृत रूपान्तरण मात्र है । वस्तुतः संयम के सत्रह भेदों की दोनों प्रकार से व्याख्या करने को शैलियाँ आगमिक और प्राचीन हो है। जिसका अनुकरण श्वेताम्बर और यापनीय दोनों परम्पराओं में पाया जाता है। वस्तुतः वर्गीकरण शैली को यह विविधता प्राणी-संयम और इन्द्रिय-संयम के आधार पर स्थित है। जब प्रभाचन्द्र जैसे यापनीय परम्परा के मान्य विद्वान् एक ही ग्रंथ में प्रकारान्तर से संयम के दोनों प्रकार के वर्गीकरणों की चर्चा कर सकते हैं और जब श्वेताम्बर 'सिद्धसेनसूरि' प्रवचनसारोद्धार में इन दोनों ही प्रकारों का
१. प्रतिक्रमण ग्रन्थत्रयी (प्रभाचन्द्र की टीका सहित ) सं० पं० मोतीचन्द
गोतमचन्द कोठारी, दिगम्बर जैन जिनवाणी जीर्णोद्धार संस्था कोल्हापुर पृ० ४९-५०।
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