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________________ ३० : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा आवश्यक है। इनके अन्तर को स्पष्ट करते हुए वे लिखते हैं कि (1) तत्त्वार्थभाष्य और प्रशमरति प्रकरण में संयम के जो सत्रह भेद बताये गये हैं वे संख्या की दष्टि से समान होते हुए भी विवरण की दृष्टि से भिन्न-भिन्न हैं।' 'तत्त्वार्थभाष्य' में संयम के सत्रह भेद निम्न हैं योगनिग्रहः संयमः । सः सप्तदशविधः। तद्यथा पृथ्वीकायिक-संयमः, अप्कायिक-संयमः, तेजस्कायिक-संयमः, वायुकायिक-संयमः, वनस्पतिकायिक-संयमः, द्वीन्द्रिय-संयम, त्रीन्द्रिय-संयमः, चतुरिन्द्रिय-संयमः, पंचेन्द्रिय-संयमः, प्रेक्ष्य-संयमः, उपदेश-संयमः, अपहृत्य-संयमः, प्रमृज्य-संयमः, काय-संयमः, वाक्-संयमः, मनःसंयमः, उपकरण-संयमः, इति संयमो धर्मःतत्त्वार्थभाष्य ९१६ जबकि प्रशमरति में संयम के सत्रह भेद निम्न हैं-- पंचास्रवाद्विरमणं पंचेन्द्रियनिग्रहश्च कषायजयः । दण्डत्रयविरतिश्चेति संयमः सप्तदेशभेदः ।। -प्रशमरति कारिका १७२ इन दोनों में मात्र पाँच इन्द्रिय विजय और तीन दण्ड समान हैं किन्तु शेष नौ नाम भिन्न-भिन्न हैं। इस आधार पर श्रीमती कुसुम पटोरिया आदि का कहना है कि 'इससे स्पष्ट ज्ञात होता है कि ये दोनों रचनाएँ एककृतक नहीं हैं, उनके कर्ता भिन्न-भिन्न हैं अन्यथा एक ही कर्ता इस प्रकार का भिन्न-भिन्न कथन अपने हो ग्रन्थों में नहीं करता। किन्तु उनकी यह मान्यता एक भ्रान्त धारणा पर स्थित है। संयम के सत्रह भेदों का दोनों शैलियों से विवेचन करने वाली परम्पराएँ अति प्राचीन हैं और आगमिक भी है, क्योंकि इनके उल्लेख उपलब्ध होते हैं। 'प्रवचनसारोद्धार' जो कि श्वेताम्बर परम्परा का ग्रन्थ है। उसमें दोनों ही प्रकार से संयम के सत्रह भेदों का उल्लेख हुआ है। उसके द्वार ६६ गाथा ५५५ में पाँच आश्रवों से विरति, पाँच इन्द्रियों पर विजय, चार कषाय का त्याग और तीन दण्ड से विरति ऐसे संयम के सत्रह भेद बताये हैं जबकि उसके द्वार ६६ की हो ५५६वीं गाथा में पृथ्वीकायादि सत्रह प्रकार के संयमों का उल्लेख हुआ है। पाँच आश्रव द्वार आदि के आधार पर संयम के सत्रह भेद करने वाली प्रवचनसारोद्धार की निम्न गाथा 'प्रशमरति' के अनुरूप है : 'पंचासवा विरमणं पंचेन्दिय निग्गहो कसाय जओ। दण्डत्तयस्स विरई सत्तरसहा संजमो होइ॥' -प्रवचनसारोद्धार ६६०५५५ १. यापनीय और उनका साहित्य,-डॉ० कुसुम पटोरिया, पृ० ११९-१२० । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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