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________________ १६ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा (द) 'इति' शब्द द्वारा सूत्रों को वर्ग में बाँटना।। सुजिको ओहिरो के अनुसार यद्यपि ऐसा करने में तकनीकी दृष्टि से बहुत-सी गलतियाँ हुई हैं, जिससे सूत्रों का ठीक-ठीक अर्थ समझने में कठिनाई होती है। इसका एक कारण तो यह है कि दक्षिण भारत में जैनाचार्यों के समक्ष उत्तर भारत की आगमिक परम्परा का अभाव था और दूसरा कारण यह है कि सूत्रकार की उस वास्तविक स्थिति को न समझ पाना, जिसमें जैन सिद्धान्त को तथा अन्य दार्शनिक मतों को बराबर ध्यान में रखकर इस ग्रन्थ की रचना की गई थी। यद्यपि वे मानती हैं कि मात्र भाषागत अध्ययन से किसी ऐसे निष्कर्ष पर तो नहीं पहँच जा सकता, जिससे कहा जा सके कि अमुक परम्परा में तत्त्वार्थसूत्र मूलरूप में है और अमुक परम्परा में दूसरे से लिया गया है। फिर भी "उपयुक्त आधार पर इतना निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि श्वेताम्बर पाठ आगमिक सन्दर्भ की दृष्टि से दिगम्बर पाठ से अधिक संगत है।" सुजिका ओहिरो के साथ-साथ कुछ श्वेताम्बर विद्वानों की भी मान्यता है कि सर्वार्थसिद्धि मान्य पाठ व्याकरण की दृष्टि से अधिक परिष्कारित है। पूज्यपाद व्याकरण के विद्वान् थे अतः उन्होंने ही भाष्यमान्य पाठ को व्याकरण की दृष्टि से परिष्कारित किया है और इस आधार पर सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ भाष्यमान्य पाठ की अपेक्षा परवर्ती सिद्ध होता है। मुझे उनके इस तर्क से तो कोई आपत्ति नहीं है, किन्तु अनेक कारणों से ऐसा लगता है कि यह पाठ संशोधन का कार्य पूज्यपाद देवनन्दी ने नहीं किया है, अपितु इन्द्रनन्दी या अन्य किसी यापनीय परम्परा के व्याकरण के विद्वान् ने किया होगा। सर्वार्थसिद्धिमान्य पाठ पूज्यपाद देवनन्दी द्वारा संशोधित नहीं है, इस हेतु मैंने आगे अलग से तर्क दिये हैं, पाठक उन्हें वहाँ देख ले। सूत्रों का विलोपन एवं वृद्धि डॉ० सुजिको ओहिरो ने सूत्रों के विलोपन के आधार पर यह माना है कि श्वेताम्बर पाठ को दिगम्बर पाठ में साररूप से समाहित किया गया है। ओहिरो के अनुसार सूत्रों के विलोपन एवं वृद्धि के विश्लेषण से यह प्रतीत होता है कि दिगम्बर सूत्रों (३/१२-३२) की रचना भाष्य और जम्बूद्वीपसमास के आधार पर की गई है । तार्किक दृष्टि से दिगम्बर विद्वान् यह भो १. देखें-तत्त्वार्थसूत्र, पं० सुखलालजी, पार्श्वनाथ विद्याश्रम शोध संस्थान वाराणसी ५, भूमिका भाग, पृ० ९२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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