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________________ १४ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा हैं, तो हमें यह मानना होगा कि इसी काल में यह अवधारणा निर्धारित होकर अपने स्वरूप में आ गई थी। यही काल श्वेताम्बर आगमों की अन्तिम वाचना का काल है । सम्भव यही है कि इसी समय उसे समवायांग में डाला गया होगा। अतः यह सुनिश्चित है कि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र का आधार न तो कुन्दकुन्द के ग्रन्थ हैं और न षट्खण्डागम हो, क्योंकि ये सभी तत्वार्थसूत्र और उसके स्वोपज्ञभाष्य के बाद की रचनाएँ हैं। यद्यपि कसायपाहुड को किसी सीमा तक तत्त्वार्थसूत्र का समसामयिक माना जा सकता है। फिर भी गुणस्थान सिद्धान्त की दृष्टि से यह तत्त्वार्थ से किञ्चित परवर्ती सिद्ध होता है। यद्यपि इससे हमारे कहने का तात्पर्य यह भी नहीं है कि वलभी वाचना के वर्तमान में श्वेताम्बरों द्वारा मान्य आगम उनके तत्त्वार्थसूत्र का आधार है, क्योंकि यह वाचना तो उमास्वाति के बाद की है । वस्तुतः स्कंदिल की माथुरी वाचना (वीर निर्वाण ८२७-८४०) के भी पूर्व फल्गुमित्र के समय जो आगम ग्रन्थ उपस्थित थे, वे ही तत्त्वार्थसूत्र की रचना के मुख्य आधार रहे हैं। मेरी दृष्टि में उमास्वाति स्कंदिल से पूर्ववर्ती है अतः उनका आधार फल्गुमित्र के युग के आगम ग्रन्थ ही थे। यद्यपि वर्तमान में श्वेताम्बर परम्परा द्वारा मान्य आगमों से इनमें बहुत अधिक अन्तर नहीं रहा होगा, फिर भी कुछ पाठ भेद और मान्यता भेद तो अवश्य ही रहे होंगे। दूसरे वर्तमान में उपलब्ध श्वेताम्बर आगम कोटिकगण की वज़ीशाखा के हैं जबकि उमास्वाति कोटिकगण की उच्चनागरी शाखा में हुए हैं, इन दोनों शाखाओं में और उनके मान्य आगमों में कुछ मान्यताभेद और कुछ पाठभेद अवश्य ही रहा होगा, यह माना जा सकता है । सम्भवतः उसी उच्चनागरी शाखा में मान्य आगमों को ही उमास्वाति ने अपने ग्रन्थ की रचना का आधार बनाया होगा, जिसके परिणाम स्वरूप चार-पाँच स्थानों पर तत्त्वार्थसूत्र और उसकी भाष्यगत मान्यताओं में वर्तमान श्वेताम्बर आगमिक परम्परा की मान्यताओं से मतभेद आ गया है, जिसकी चर्चा हमने आगे की है। फिर भी इतना सुनिश्चित है कि उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र का आधार वे ही आगम ग्रन्थ रहे हैं, जो क्वचित् पाठभेदों के साथ श्वेताम्बरों में आज भी प्रचलित हैं और यापनीयों में भी प्रचलित थे। इससे इस भ्रान्ति का भी निराकरण हो जाता है कि तत्त्वार्थसूत्र की रचना का आधार षट्खण्डागम और कुन्दकुन्द के ग्रन्थ है, क्योंकि ये ग्रन्थ तत्त्वार्थसूत्र की अपेक्षा पर्याप्त परवर्ती है और गुणस्थान, सप्तभंगी आदि परवर्ती युग में विकसित अवधारणाओं के उल्लेखों से युक्त है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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