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________________ तत्वार्थ सूत्र और उसकी परम्परा : १३ - सम्यक्त्व, देशविरति, संयत, उपशामक, क्षपक गाथा (१४) । फिर भी कसायपाहुड का विवरण तत्त्वार्थ की अपेक्षा कुछ अधिक व्यवस्थित एवं विस्तृत लगता है । ऐसा माना जा सकता है कि तत्त्वार्थसूत्र, कसायपाहुड और षट्खण्डागम में गणस्थान की अवधारणा का क्रमिक विकास हुआ है । जैसा कि हमने निर्देश किया है श्वेताम्बरमान्य समवायांग में १४ जीवठाण के रूप में १४ गुणस्थानों का निर्देश है, किन्तु अनेक आधारों पर यह सिद्ध होता है कि समवायांग में प्रथम शतो से पाँचवीं शती के बीच अनेक प्रक्षेप होते रहे हैं । अतः वलभी वाचना के समय ही जोव समास का यह विषय उसमें संकलित किया गया होगा । अन्य प्राचीन स्तर के श्वेताम्बर आगमों जैसे - आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन, दशवेकालिक, भगवतो और यहाँ तक कि प्रथम शताब्दी में रचित प्रज्ञापना और जीवाभिगम में भी गुणस्थान का अभाव है । इन आगमों में ऐसे कई प्रसंग थे, जहाँ गुणस्थान को चर्चा की जा सकती थी, किन्तु उसका कहीं भी उल्लेख या नाम निर्देश तक न होना यही सिद्ध करता है कि तत्त्वार्थसूत्र के काल तक ये अवधारणाएँ अस्तित्व में नहीं आयी थीं। चूंकि कुन्दकुन्द ', षट्खण्डागम', भगवती आराधना और मूलाचार आदि सभी इन अवधारणाओं की चर्चा करते हैं, अतः वे तत्त्वार्थं से पूर्ववर्ती नहीं हो सकते । यदि यह कहा जाये कि उमास्वाति के समक्ष ये अवधारणाएँ उपस्थित तो थीं, किन्तु उन्होंने अनावश्यक समझकर उनका संग्रह नहीं किया होगा, तो फिर प्रश्न यह उठता है कि तत्त्वार्थ भाष्य के अतिरिक्त तत्त्वार्थसूत्र के सभी श्वेताम्बर और दिगम्बर टोकाकार इस सिद्धान्त की चर्चा क्यों करते हैं ? यहाँ तक कि तत्त्वार्थसूत्र के प्रथम दिगम्बर टीकाकार पूज्यपाद देवनन्दी सर्वार्थसिद्धि में तत्त्वार्थ के प्रथम अध्याय के आठवें सूत्र की चर्चा में न केवल इनका नाम निर्देश करते हैं । अपितु इसकी अति विस्तृत व्याख्या भी करते हैं । यदि हम पूज्यपाद देवनन्दी का काल पाँचवीं का उत्तरार्ध और छठीं शताब्दी का पूर्वार्ध मानते १. देखे - बोधपाहुड ३१, ३२, भावपाहुड ९७, समयसार ५५, नियमसार ७८ २. देखे - षट्खण्डागम १।१।५ तथा १।१।९-२२ ३. भगवती आराधना १०८६-८८ ४. मूलाचार, १२ (पर्याप्ति-अधिकार)/ १५४-१५५ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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