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________________ ९६ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा यह उत्तर बच्चों को बहकाने जैसा है। समझ में नहीं आता कि देशव्रत को सामायिक के बाद रखकर उसका स्वरूप वहाँ बतला देने से उसके सुखबोधार्थ में कौन-सी अड़चन पड़ती अथवा कठिनता उपस्थित होती थी और अड़चन अथवा कठिनता आगमकार को क्यों नहीं सूझ पड़ी ? क्या आगमकार का लक्ष्य सुखबोधार्थ नहीं था ? आगमकार ने तो अधिक शब्दों में अच्छी तरह समझाकर-भेदोपभेद को बतलाकर लिखा है । परन्तु बात वास्तव में सुखबोधार्थ अथवा मात्र क्रम भेद की नहीं है, क्रमभेद तो दूसरा भी माना जाता है-आगम में अनर्थदण्डव्रत को दिव्रत से भी पहले दिया है, जिसकी सिद्धसेन गणी ने कोई चर्चा नहीं की है। परन्तु वह क्रमभेद गुणवत-गुणव्रत का है, जिसका विशेष महत्व नहीं; यहाँ तो उस क्रमभेद को बात है जिससे एक गुणव्रत शिक्षाव्रत और एक शिक्षाव्रत गुणव्रत हो जाता है और इसलिए इस प्रकार की असंगति सुखबोधार्थ कह देने मात्र से दूर नहीं हो सकतो। अतः स्पष्ट कहना होगा कि इसके द्वारा दूसरे शासन भेद को अपनाया गया है।" इस सन्दर्भ में मेरा निवेदन इस प्रकार है प्रथमतः तो ऐसे आवान्तर मतभेद एक ही परम्परा में भी उपलब्ध होते हैं, हमें तो यह विचार करना होगा कि क्या यह कोई महत्त्वपूर्ण सैद्धान्तिक असंगति है ? यदि हम गुणवतों या शिक्षाव्रतों के नामों के सन्दर्भ में विचार करते हैं तो हम यह पाते हैं कि वर्तमान में जो श्रावक के बारह व्रतों का विभाजन पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत के रूप में किया जाता है वह श्वेताश्बर आगमों में भी समान रूप से नहीं है। वह एक कालक्रप में विकसित एवं सुनिश्चित हुआ है। इस सम्बन्ध में प्रत्येक परम्परा में आवान्तर मतभेद देखे जा सकते हैं। श्वेताम्बर मान्य आगमों में भी औपपातिक में जो पाँच अणुव्रत, तीन गुणव्रत, शिक्षावत का विभाजन है, वह आसकदशांग में नहीं है। उपासकदशांग में पाँच अणुव्रत और सात शिक्षाव्रतों का उल्लेख है। गुणवतों और शिक्षाव्रतों का विभाजन तत्त्वार्थसूत्र और उपासकदशांग को रचना के पश्चात् हुआ है, जो ग्रन्थ ऐसे उल्लेख से युक्त हैं, वे परवर्ती हैं । जहाँ तक श्रावक के बारह व्रतों के नामों का प्रश्न है वहाँ तक श्वेताम्बर आगमों और तत्त्वार्थसूत्र में नामों को लेकर कोई असंगति नहीं १. जैन साहित्य और इतिहास पर विशद प्रकाश-पं० जुगल किशोर जी मुख्तार, पृ० १४०-१४२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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