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तत्वार्थ सूत्र और उसकी परम्परा : ९५
संविभाग, ये चार शिक्षाव्रत हैं । परन्तु श्वेताम्बर आगम में देशव्रत को गुणव्रतों में न लेकर शिक्षाव्रतों में लिया है और इसी तरह उपभोगपरिभोगपरिमाणव्रत का ग्रहण शिक्षाव्रतों में न करके गुणव्रतों में किया है। जैसा कि श्वेताम्बर आगम के निम्न सूत्र से प्रकट है
"आगारधम्मं दुवालसविहं आइक्खइ, तं जहा - पंचअणुव्वयाई तिणि गुणव्वाइं चत्तारि सिक्खावयाइं । तिणि गुणव्त्रयाई, तं जहा - अणत्थदण्डवेरमाणं दिसिव्वयं, उपभोगपरिभोगपरिमाणं । चत्तारि सिक्खावयाई, तं जहा - सामाइयं, देसावगासिय, पोसहोपवासे, अतिहिसंविभागे ।" - औपपातिक श्रोवोर देशना सूत्र ५७
इससे तत्त्वार्थशास्त्र का उक्त सूत्र श्वेताम्बर आगम के साथ संगत नहीं, यह स्पष्ट है । इस असंगति को सिद्धसेनगणी ने भी अनुभव किया है और अपनी टीका में यह बतलाते हुए कि 'आर्ष (आगम) में तो गुणव्रतों का क्रम से आदेश करके शिक्षाव्रतों का उपदेश दिया है, किन्तु सूत्रकार ने अन्यथा किया है', यह प्रश्न उठाया है कि सूत्रकार ने परम आर्ष वचन का किसलिये उल्लंघन किया है ? जैसा कि निम्न टोका के वाक्य से प्रकट है—
" सम्प्रति क्रमनिर्दिष्टं देशव्रतमुच्यते । अत्राह वक्ष्यति भवान् देशव्रतं । परमार्षवचनक्रमः कैमर्थ्याद्भिन्नः सूत्रकारेण ? आर्षे तु गुणव्रतानि क्रमेणदिश्य शिक्षाव्रतान्युपदिष्टानि सूत्रकारेण स्वन्यथा । "
इसके बाद प्रश्न के उत्तर रूप में इस असंगति को दूर करने अथवा उस पर कुछ पर्दा डालने का यत्न किया गया है, और वह इस प्रकार है
" तत्रायमभिप्रायः - पूर्व तो योजनशतपरिमितं गमनमभिगृहोतम् । न चास्ति सम्भवो यत्प्रतिदिवसं तावती दिगवगाह्या, ततस्तदनन्तरमेवोपदिष्टं देशव्रतमिति देशे-भागेऽवस्थानं प्रतिप्रहरं प्रतिक्षणमिति सुखावबोधार्थमन्यथा क्रमः ।"
इसमें अन्यथा क्रम का यह अभिप्राय बतलाया है कि - ' पहले से किसी १०० योजन परिमाण दिशागमन की मर्यादा ली परन्तु प्रतिदिन उतनो दिशा का अवगाहन सम्भव नहीं है, इसलिये उसके बाद ही देशव्रत का उपदेश दिया है । इससे प्रतिदिन, प्रतिप्रहर और प्रतिक्षण पूर्वगृहोत मर्यादा के एक देश में एक भाग में अवस्थान होता है । अतः सुखबोधार्थ - सरलता से समझाने के लिए यह अन्यथा क्रम स्वीकार किया गया है ।'
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