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________________ तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा : ९३ पुनः तत्त्वार्थभाष्य को टोका करते हुए सिद्धसेन गणि स्पष्ट रूप से लिखते हैं कि 'एते यथोउदिष्टा गुणा दर्शनविशुद्धियादय आत्मनः परिणामाः समुदिताः प्रत्येकं च तीर्थंकर नामकर्मन् आश्रवा भवन्ति न पुनः नियमो अस्ति समस्ता एव व्यस्ता एव वा विकल्पा अर्थो वा गब्दः । यहाँ हम देखते हैं कि सिद्धसेन भी दर्शन विशुद्धि से हो प्रारम्भ करते हैं और उनके कारणों को वैकल्पिकता स्वीकारते हैं। अतः दर्शनविशुद्धि से प्रारम्भ होने के कारण यापनीयों को दिगम्बर सम्मत वही १६ कारण मान्य थे, यह निष्कर्ष निकाल लेना ठीक नहीं होगा; क्योंकि दोनों में एक नाम में तो स्पष्ट अन्तर है। इस चर्चा में संख्या का महत्त्व नहीं है क्योंकि भाष्य, नियुक्ति आदि सभो यह मानते हैं कि इनमें से किसी एक के अथवा कुछेक के अथवा सभी के अनुपालन से तोयंकर गोत्र का बन्ध होता है। ___ जहाँ तक १६ या २० कारणों के विवाद का प्रश्न है, नामों को यह भिन्नता षट्खण्डागम और तत्त्वार्थसूत्र में भी उपलब्ध होती है । तत्त्वार्थसूत्र में प्रतिपादित आचार्य भक्ति का उल्लेख षट्खण्डागम में नहीं है उसके स्थान पर वहाँ 'क्षणलव प्रतिबोधना' का उल्लेख मिलता है। जो कि ज्ञाताधर्मकथा और नियुक्ति के उल्लेख के अनुरूप है । वस्तुतः तीर्थकर नामकर्म प्रकृति के कारणों का सुव्यवस्थित संख्यात्मक विवेचन एक परवर्ती घटना है। श्वेताम्बर मान्य ज्ञाताधर्मकथा में तत्सम्बन्धी जा गाथाएँ उपलब्ध हैं, वे उसमें आवश्यक नियुक्ति से ही प्रक्षिप्त को गई हैं, क्योंकि प्रथम तो ग्रन्थ गद्य में है और दूसरे उस सन्दर्भ में वे अत्यावश्यक भी नहीं हैं। वहाँ महाबल के तप का विवरण चल रहा है, कोई भी विज्ञ पाठक यह समझ सकता है कि अनुकूल प्रसंग देखकर ये गाथाएँ उसमें डाल दी गई हैं किन्तु यदि यह विवरण वहाँ न भी हो तो भी कोई कमी नहीं रहती । सम्भवतः इस बीस की संख्या का निर्धारण नियुक्ति काल में ही हुआ है। जिस प्रकार तत्त्वार्थसूत्र की मूल पाँच नयों एवं शब्दनय के दो भेदों की अवधारणा से सात नयों का विकास हुआ, उसी प्रकार तत्त्वार्थभाष्य के मूल सोलह कारणों तथा भाष्य के प्रवचन वत्सलता के पाँच भेदों से ही श्वेताम्बरों में बोस कारणों की मान्यता का विकास हुआ है। यह भी सम्भव है कि उमास्वाति की उच्च नागर शाखा प्रारम्भ में १६ कारण ही मानती हो। यदि हम इस सोलह और बीस के विवाद को सामान्य दृष्टि से देखें. १. तत्त्वार्थधिगम भाष्य टीका ६।२३ (द्वितीयो विभाग, पृ० ३८) Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003603
Book TitleTattvartha Sutra aur Uski Parampara
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherParshwanath Vidyapith
Publication Year1994
Total Pages162
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Tattvartha Sutra, History, Tattvartha Sutra, & Tattvarth
File Size8 MB
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