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९२ : तत्त्वार्थसूत्र और उसकी परम्परा है। न तो तत्त्वार्थसूत्र की, दिगम्बर परम्परा द्वारा मान्य यापनीय ग्रन्थ की षट्खण्डागम से पूर्ण एकरूपता है और न श्वेताम्बर मान्य ज्ञाताधर्मकथा और आवश्यकनियुक्ति से हो। किन्तु यदि ईमानदारी पूर्वक विश्लेषण करें तो यह पाते हैं कि इन अन्तरों से कोई सैद्धान्तिक विरोधाभास नहीं आता । तत्त्वार्थसूत्र की आचार्यभक्ति न तो षट्खण्डागमकार को अमान्य कही जा सकती है और न गुरु, सिद्ध, स्थविर और तपस्वी भक्ति तथा अपूर्व ज्ञान ग्रहण के प्रति तत्त्वार्थकार या षट्खण्डागमकार का कोई विरोध हो सकता है । वस्तुतः ये धारणाएँ कालक्रम में विकसित हुई हैं और इसी कारण उनमें क्वचित् मतभेद देखा जाता है।
भगवतोआराधना की अपराजितसरि टीका में दर्शन विशुद्धि आदि को तीर्थकरत्व प्राप्ति का कारण बताया है। इसके आधार पर कुछ विद्वानों ने यह मान लिया है कि उन्हें अर्थात् यापनीयों को भी तत्त्वार्थसूत्र अथवा दिगम्बर सम्प्रदाय समस्त सोलह कारण ही मान्य होंगे, श्वेताम्बर सम्प्रदाय सम्मत बोस कारण नहीं । पुनः श्वेताम्बरमान्य ग्रन्थों में तीर्थकर पद प्राप्ति का प्रथम कारण अरिहन्त-वत्सलता बताया गया है जबकि तत्त्वार्थसूत्र में प्रथम कारण दर्शनविशुद्धि है। इस आधार पर उन्होंने यह भी अनुमान कर लिया है कि तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बर ग्रन्थ नहीं हो सकता है। उनके शब्दों में इससे भो अनुमानित होता है कि तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बर ग्रन्थ नहीं है।'
इस सन्दर्भ में महत्त्वपूर्ण तथ्य यह है-बीस कारणों का उल्लेख करने वाली आवश्यक नियुक्ति की ये तीनों गाथाएँ त्रिक हैं । इस त्रिक में यदि प्रथम दो गाथाओं का क्रम बदल दिया जाये तो श्वेताम्बर परम्परा में भी प्रारम्भ दर्शन से ही होगा। हो सकता है कि उमास्वाति के सामने यही क्रम रहा हो । गाथाओं के क्रम निर्धारण से मूल अवधारणा में कोई अन्तर भी नहीं आता है। आवश्यकनियुक्ति में स्पष्ट रूप से यह भी उल्लेख है कि प्रथम और अन्तिम तीर्थकर सभी कारणों का सेवन करते हैं किन्तु मध्यवर्ती तीर्थंकर एक, दो, तीन या सब कारणों का सेवन करते हैं ।२..
१. यापनीय और उनका साहित्य, डॉ० कुसुम पटोरिया पृ० १०० । २. पुरिमेण पच्छिमेण य, एए सम्वेऽवि फासिया ठाणा । मज्झिमएहिं जिणेहि एक्कं दो तिण्णि सव्वे वा ॥
-आवश्यकनियुक्ति गाथा ५४ (नियुक्ति संग्रह, पृ० ४७),
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