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________________ भगवान् भगवद्गीता के ७वें अध्याय में कहते हैं मनुष्याणां सहस्त्रेषु कश्चिद्यतनि सिध्दये । यततामपि सिध्दानां कश्चिन्मां वेत्ति तत्त्वतः इसका अर्थ यह है कि लाखों लोगों में से एक आदमी ही सिध्दि के लिए कोशिश करता है और इन सिध्दि प्राप्त हुए लाखों लोगों में से एक व्यक्ति ही तत्त्व रूप से मुझे जानता है । तीसरी दुर्लभ बात है- किसी संत का मिलना। ये तीनों बातें बड़ी कठिनता से मिलती हैं । जिन्हें ये तीनों बातें मिली हैं, वे सचमुच धन्य हैं। संत रामदास भी यही कहना चाह रहे हैं'देव जवळी अंतरी, भेंट नाही जन्मभरी ।' जब तक 'अहं ब्रह्मास्मि' नहीं जानता, तब तक वह शरीर और आत्मा का भेद नहीं कर सकता । ज्ञान से वह यह भेद जानता है और कहता है मेरे प्रभु का आतम नाम, मेरे स्वरूप की हुई पहचान, जब से तुमको देखा भगवान्, तू मुझमें, मैं तुझमें समान । 'ध्यान' आध्यात्मिक-साधना का परम शिखर है। प्रारंभ में स्थूल वस्तु का अवलोकन किया जाता है, बाद में सूक्ष्म वस्तु की एकाग्रता की जाती है। जैनाचार्यों ने ध्यान की व्याख्या चित्त का निरोध' की है। गीता में कहा गया है कि मन को रोकने का कार्य उतना ही कठिन है, जैसे किसी पवन को रोकना । अभ्यास और वैराग्य से हम यह कार्य कर सकते हैं। ध्यान में मन को धीरे-धीरे निष्क्रिय किया जाता है और फिर मन 'अमन' बन जाता है। एक मानव के लिए आत्मज्ञान ही सर्वश्रेष्ठ है । Jain Education International For Private & Personal Use Only ध्यान दर्पण / 59 www.jainelibrary.org
SR No.003602
Book TitleDhyan Darpan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorVijaya Gosavi
PublisherSumeru Prakashan Mumbai
Publication Year
Total Pages140
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size5 MB
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