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बाह्य-जगत् की हर वस्तु नाशवान् है, अशाश्वत है, हर समय बदलती है, मेरा साथ नहीं निभाती। सिर्फ आत्मा ही शाश्वत है। वही मेरा स्वरूप है । मैं जीव हूँ। सबसे भिन्न हूँ। मेरा कोई नहीं । मैं अकेला हूँ। मेरा शरीर भी मेरा नहीं । यही मेरी पहचान है। सभी सन्तों ने यही बताया है। ध्यान में जब स्थिरता प्राप्त होती है, तब स्वर्ग आनंद की अनुभूति होती है। ध्याता अपने स्वभाव में स्थित होकर शुभ - अशुभ कर्मों के प्रवाह को रोकता है। विद्यमान कर्म की निर्जरा होती है।
ज्ञानावरणीय, दर्शनावरणीय, अंतराय, मोहनीय आदि कर्मों की स्थिति बदलती है और साधक को सुख की प्राप्ति होती है। दुःखमय कर्मों के उदय सुखमय बनते जाते हैं।
योगसार में लिखा है- 'आत्मदर्शन ही मोक्ष का कारण है'
अप्पा - दंसणु एक्कु परू अण्णुण किंपि । मोक्खहँ कारण जोइया णिच्छइं एहउ जाणि ।।
हे योगिन्! आत्मदर्शन ही मोक्ष का कारण है, अन्य कुछ भी मोक्ष का कारण नहीं, यही तू निश्चय ही समझ ।
ध्यान में स्वयं को पाने वाला साधक इसी जीवन में आत्यंतिक आंतरिक-सुख का हकदार होता है । उसे दुनिया की हर चीज नकली और अनित्य दिखाई देती है। वह सचमुच अंदर से मुक्त होता है, परंतु बाहर से सामान्य दिखाई देता है। जब चाहे, वह अपने घर लौटता है, वहाँ असीम विश्राम पाता है और गाता है
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मेरा ज्ञान भजन बन गया, मेरा चित्त चुप जो हुआ, मेरा विकारी मन है शान्त, ध्यानदर्पण में खुद को पाया ।।
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ध्यान दर्पण / 135
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