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प्राचीन साधकों और दार्शनिकों ने अनुप्रेक्षा - चिन्तन की एकाग्रता द्वारा सत्य को खोजा था। आज के वैज्ञानिक भी इसी पद्धति द्वारा सत्य तक पहुंचते हैं । प्रायोगिक - अनुप्रेक्षा के दो प्रकार हैं
१. सत्य का चिंतन २. भाव - परिवर्तन |
मनुष्य जिसके लिए भावना करता है, जिस अभ्यास को दोहराता है, उसी रूप में उसका संस्कार निर्मित हो जाता है। यह आत्म-सम्मोहन की प्रक्रिया है । आत्मा की भावना करने वाला आत्मा में स्थित हो जाता है। 'अर्हम्' की भावना करने वाले में 'अर्हत्' होने की प्रक्रिया शुरू हो जाती है।
ध्येय
प्रेक्षा- ध्यान की साधना का ध्येय है- चित्त को निर्मल बनाना । चित्त कषायों से मलिन रहता है। कषायों से मलिन चित्त में ज्ञान की धारा नहीं बह सकती। हमारे भीतर ज्ञान होते हुए भी वह प्रकट नहीं होता, क्योंकि बीच में मलिन चित्त का परदा आ जाता है, अवरोध आ जाता है । चित्त की निर्मलता होते ही वह ज्ञान प्रकट होता है, उसका अवरोध समाप्त हो जाता है, वह पारदर्शी बन जाता है।
जब चित्त की निर्मलता होती है, तब शांति का अनुभव स्वतः होने लगता है। मन का संतुलन, मन की समता और आनन्द का अनुभव होने लगता है।
प्रेक्षा
ध्यान के पूर्व यौगिक क्रियाएँ की जाती हैं। पूरे शरीर में खिंचाव व लचीलापन लाया जाता है। प्रत्येक अंग पर यह क्रिया होती है।
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ध्यान दर्पण / 127
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