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हैं, तब उनके स्पन्दन स्पष्ट होने लग जाते हैं।
जब हम मन को देखते हैं, तब सोचते नहीं हैं और जब हम सोचते हैं, तब देखते नहीं हैं। विचारों का जो सिलसिला चलता है, उसे रोकने का सबसे अन्तिम साधन है- देखना। आप स्थिर होकर अपने भीतर देखें- अपने विचारों को देखें या शरीर के प्रकंपनों को देखें, तो आप पाएंगे कि विचार स्थगित है और विकल्पशून्य है, तब आप भीतर की गहराइयों को देखते-देखते सूक्ष्म शरीर को देखने लगेंगे। जो भीतरी सत्य को देख लेता है, उसमें बाहरी सत्य को देखने की क्षमता अपने-आप आ जाती
है।
देखना वह है, जहाँ केवल चैतन्य सक्रिय होता है। जहां प्रियता और अप्रियता का भाव आ जाए, वहां देखना गौण हो जाता है।
माध्यस्थ या तटस्थता प्रेक्षा का ही दूसरा रूप है। जो देखता है, वह सम रहता है। वह प्रिय के प्रति राग-रंजित नहीं होता
और अप्रिय के प्रति द्वेषपूर्ण नहीं होता। वह प्रिय और अप्रिय-दोनों की उपेक्षा करता है।
एकाग्रता और अप्रमाद (जागरूकता)
प्रेक्षाध्यान की सफलता एकाग्रता पर निर्भर है। अप्रमाद या जागरूकता का भाव बहुत महत्वपूर्ण है। ध्यान का स्वरूप है-अप्रमाद, चैतन्य का जागरण या सतत जागरूकता। जो जागृत होता है, वही अप्रमत्त होता है। जो अप्रमत्त होता है, वही एकाग्र है। एकाग्रचित्त व्यक्ति ही ध्यान कर सकता है।
अप्रमत्त व्यक्ति को कार्य के बाद उसकी स्मृति नहीं सताती। आदमी जितना काम करता है, उससे अधिक वह स्मृति
ध्यान दर्पण/117
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