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४. वारूणी-धारणा -
आकाश में घने बादल फैले हुए हैं। उन पर ‘पपप' शब्द लिखे हैं। बिजली जोर से चमक रही है और बरसात हो रही है। उस बरसात के कारण जो भी शरीर या आठ कर्मों की राख हुई थी, वह उड़ गई है। अब मैं निर्मल हो गया हूँ, पवित्र हूँ। ५. तत्त्वरूपवती-धारणा
इस धारणा में साधक सभी कर्मों से मुक्त हो गया है। मैं शुद्ध हूँ, अकेला हूँ, मैं सिद्धि हूँ- इस धारणा में वह रहता है। मैं अनंत ज्ञानस्वरूप, अनंत दर्शनस्वरूप, अनंत सुखस्वरूप, अनंत शक्तिस्वरूप हूँ। मैं नित्य हूँ, सूक्ष्म हूँ। शुक्लध्यान -
यह ध्यान आज संभव नहीं है, क्योंकि यह सिर्फ श्रुतकेवली और संयोगी-केवली तथा अयोगी-केवली को होता है। छद्मस्थ-अवस्था में वह संभव नहीं है। यह ध्यान आठवें गुणस्थान से प्रारंभ होता है। इसके चार भेद हैं- १) पृथक्त्व-वितर्कविचार २) एकत्व-वितर्कविचार ३) सूक्ष्मक्रिया-प्रतिपाति ४) समूर्च्छन-क्रियानिवृत्ति।
इस प्रकार जैन-आगम में ध्यान के चार भेद वर्णित हैं।
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ध्यान दर्पण/115
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