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चारित्र चक्रवर्ती- एक अध्ययन
सतहत्तर प्रभावित होते हैं। उनकी धारणा है कि व्यक्ति की मृत्यु उसके कुल जीवन की चुगली खातो है कि इस व्यक्ति का जीवन सधा हुआ था या नहीं। यदि व्यक्ति ने अपनी मृत्यु को साध लिया, तो कहा जा सकता है कि इस व्यक्ति का जीवन सधा हुआ था और यदि नहीं साधा, तो कहा जा सकता है कि इसने जीवन यश के संकलन व बातों की बादशाहत में बिताया। __इस मानस के मनःस्वियों के लिये भी आचार्य श्री की संल्लेखना के ३६ दिन आचार्य श्री के चरणों की शरण स्वीकार करने हेतु सशक्त आधार हैं।। ___ इन ३६ दिनों में आचार्यश्री की उभरकर आई लौकिक व लोकोत्तर अद्वितीयता सल्लेखना के समीचीन दस्तावेज के रूप में जैन साधना को जैन व जैनेतरोंके मध्य स्थापित कर गई। इस विषय में चारित्र चक्रवर्ती २००६ के संस्करण, जिसकी कि प्रकाशक महासभा है, में “इस युग के महानायक के महाप्रयाण की साधना के ३६ दिन"शीर्षक से संग्रहीत चित्रों को चलचित्र का आभास देनेवाली झाँकी अवलोकनीय है।। समाधि के साधक के विराटव्यक्तित्व का यह चित्रमय संकलन उनकी विराटता का आंशिक प्रस्तुतिकरण है, किन्तु आंशिक होने के पश्चात भी उस विराट व्यक्तित्व की विराटता की अनुभूति कराने वाला है। ___ यहाँ हम उसी संकलन से लेकर “अंतत: आचार्य श्री ने इंगनिमरण साध ही लिया” शीर्षक से इस संकलन कर्ता ने आचार्य श्री के अंतिम तीन दिनों का वर्णन करने वाली जो पंक्तियाँ लिखी है, उन्हीं पंक्तियों को यहाँ उद्धृत् कर रहे हैं, भविजन, एकाग्र चित्त हो इन पंक्तियों व उसके अर्थ को हृदयस्थ करें :
अंतत: आचार्य श्री ने इंगनिमरण साध ही लिया मृत्यु के क्षण के तीन दिन पूर्व से ही आचार्य श्री के
नमल था, नमूत्र, न स्वेद, न भूख, न प्यास, न रोग, नशोक, न पीड़ा, न क्रंदन, न कराह, न आक्रोश, न खीझ, न निराशा, न आशा, न किसी से सेवा ली और न ही स्वयं भी स्वयं की सेवा की, आयु कर्म पूर्ण होने तक लेटे रहे एक ही करवट, उनके न नींद थी, न प्रमाद, न प्रसन्नता, न खेद, न क्लेश, कुछ नहीं, कुछ भी नहीं था उनके पास, सिवाय सिद्धोऽहं व सिद्ध शरण के भावों के॥ आयु कर्म पूर्ण हुआ और दीक्षा काल में जैसे निर्मम होकर त्यागे थे वस्त्र, ठीक उसी तरह अत्यंत निर्मम भाव से त्याग दी देह, मानो साक्षात् स्वयं अपनी देह का त्याग करते हुए स्वयं का साक्षात्कार किया हो। ऐसा मृत्यु महोत्सव तो इस कलिकाल की इस सदी के भूतकाल में तो हुआ ही नहीं, किंतु संभवतः भविष्य में बिरलों को ही होगा।
ॐ शांति, शांति, शांति॥ हम सभी, फिर वो जैन हो अथवा अजैन, क्या अपने लिये ऐसे ही किसी मृत्यु को कामना नहीं करता है ? करता है ना ? जैन व अजैनों की मृत्यु में अंतर सिर्फ सम्यक्त्व का होता है| आस्था का होता है। जिसकी आस्था समीचीन होती है, उसे यह मृत्यु स्वर्गादिक संपदा पूर्वक अधिक से अधिक ७ या ८ भवों में भव से पार लगा देती है, वहीं अजैनों को
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