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________________ छिहत्तर चारित्र चक्रवर्ती कि उसने उस गांव को ही लील लिया। ये तो निसर्ग प्रदत्त लिये गये निर्णयों के उदाहरण हुए, किन्तु अपने विशिष्ट क्षयोपशम के आश्रय से दूरगामी अंदेशों को भाँप, उनका अपनी विशिष्ट कार्य शैली द्वारा समाधान कर लेने का अद्वितीय गुण भी आचार्य श्री के पास था। ___इस विषय में आचार्य श्री द्वारा दिगम्बर जैन समाज को ही नहीं, अपितु श्वेताम्बर जैनसमाज को भी अपनी-अपनी धार्मिक स्वतंत्रता को निश्चितता के साथ भोगने को स्वतंत्रता का दिया गया उपहार है।। यदि आज आचार्य भगवंत नहीं होते तो नियमतः श्वेतांबर हो अथवा दिगम्बर, दोनों के ही आयतनों में हिन्दूत्व के अंश न सिर्फ प्रवेश कर जाते, अपितु उन आयतनों पर जैन धर्मावलम्बियों का एकाधिपत्य भी नहीं रहता॥ १९४७ में हरिजन टेंपल एन्ट्री एक्ट की धारा में स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र शासकों ने जैनियों की गणना हिन्दुओं में गिननी प्रारंभ कर दी और कहा कि जैन हिन्दू ही हैं व चूंकि जैन हिंदू ही हैं, इसलिये जितने अधिकार हरिजनों को हिन्दू मंदिरों के लिये दिये जाते हैं, उतने ही अधिकारों का अधिकारी हरिजन जैन मंदिरों के लिये भी निसर्गतः हो जाता है, इसमें शंका को कोई स्थान ही नहीं। निश्चित ही पाठक वर्ग कल्पना कर सकता है कि यदि यह संविधान लागू हो जाता तो जैनायतनों की आज स्थिति क्या होती ? ____ आज हम जो संवैधानिक रूप से धार्मिक स्वतंत्रता का भोग भोग रहे हैं, यह एक और मात्र एक आचार्य शांतिसागर जी महाराज द्वारा सम्पूर्ण जैन धर्मावलम्बियों को दिया गया अतुलनीय व अप्रतिम उपहार है।। . इस कार्य को सिद्ध करने उन्होंने ११०५ दिनों तक अन्न त्याग का तप तपा। मंत्र आराधना की। जाप दिये। उपवास किये। और इसी के साथ किया केन्द्र सरकार व प्रान्तिय मुम्बई (महाराष्ट्र) सरकार को अपने पक्ष में लेने का अप्रतिम उद्यम ॥ इस संपूर्ण कृत्य का विस्तार जैन बोधक के सन् १९५१ में छपे धर्म ध्वजांक विशेषांक व चारित्र चक्रवर्ती में है। अपनी दूरदर्शिता के आश्रय से सम्पूर्ण जैन समाज को आचार्य श्री द्वारा दिये गये उपर्युक्त उपहार ने समस्त आलोचकों की जिह्वा को पक्षपात की स्थिति वाला कर दिया। इस प्रकार आचार्य श्री द्वारा चक्रवर्ती पद के योग्य विजित पाँच खण्डों का विवेचन पूर्ण हुआ, अब छठे खण्ड की बारी थी॥ वे जो कि भविष्यदृष्टा थे व आचार्य श्री को सामर्थ्य को पूर्व से ही जानते थे, उन्होंने पाँच खण्ड विजित आचार्य श्री को सन् १९३७ गजपंथा (महाराष्ट्र)से ही चारित्र-चक्रवर्ती कहना प्रारंभ कर दिया था। उन्हें उनके षट्खण्डाधिपति होने में कोई शंका ही नहीं थी॥ ६) सल्लेखना की साधना से प्रभावित : हममें से कई हैं जो कि जीवन में क्या किया गया अथवा क्या नहीं किया गया, इससे नहीं, अपितु समाधि की साधना/आराधना से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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