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चारित्र चक्रवर्ती इसलिये हमारी सम्मति में आवेदन करनेवाले (जैनियों का) यह दावा स्वीकार किया जाना चाहिये कियदि हिन्दुओं ने उसजैन-मंदिर में जाने का अपना अधिकार कानून या रिवाज से अथवाव्यवहार से सिद्ध नहीं कर दियाथा, तोशोलापुर के इस विशेषमंदिर में हरिजनों को जाने का कोई अधिकार नहीं था। ___ इस प्रार्थना पत्र से जो दूसरा मुद्दा पैदा होता है वह शोलापुर के कलेक्टर की इस बारे में की गई कार्यवाही है। हम यह मानने को पूरी तरह तैयार हैं कि कलेक्टर ने जो कुछ भी किया उसमें उसका इरादा बहुत नेक था और उन्होंने इस कार्य के हेतु वह किया जो कि बहुत ही पवित्र और उचित था। परन्तु हमें ऐसा प्रतीत होता है कि उन द्वारा की गई कार्यवाही सर्वथा कानून सम्मत नहीं थी। जो कुछ उन्होंने किया वह यह था कि उन्होंने हरिजनों के कहने पर, जिन्होंने कि मन्दिरों में जाने के अपने अधिकार के लिये आग्रह किया, यह हक्म दे दिया कि जैनों के मंदिर में लगा ताला, हटा दिया जाय।
हमें ऐसा प्रतीत होता है कि कानून से उन्हें जो अधिकार प्राप्त था वह उतना ही था, जितना कि कानून की चौथी धारा से उन्हें प्राप्त हुआ है। उसधारा में इतना ही कहा गया है कि जो भी हरिजनों को इस कानून से प्राप्त अधिकार में बाधा डालता है अथवा उस अधिकार को हरिजन द्वारा उपयोग लाने में बाधा उत्पन्न करता है अथवा उस बाधा का उत्पन्न करने का कारण बनता है, उसे उसका अपराध साबित होने पर कानून के अनुसार उसे सजा दी जासकती है। इसलिये हमारे द्वारा दिये गये निर्णय और हमारे द्वारा की गई कानून की व्याख्या और हमारे द्वारा किये गये उसके अर्थ के अनुसार यदि कलेक्टर को यह संतोष था कि हिन्दुओं को कानूनन या रिवाज से अकलूज के इस जैन मंदिर में जाने का अधिकार है, तो उसके लिये सर्वथा उचित होता कि वह उन जैनों पर मुकदमा चलाता, जिसने कि हरिजनों को इस कानून द्वारा प्राप्त अधिकार से वंचित किया गया था।
कानून कीचौथीधारा के अनुसार जैनोंपर मुकदमाचलाने के अधिकार के अलावा, हमें प्रतीत होता है किकलेक्टर कोयह अधिकार नहीं था किवह जैनों के मंदिर कातालातोडने के लिये आदेश देता यासहायता करताअथवा हरिजनों को मंदिर में जाने के लिये मदद देता।
यदि कलेक्टर की यह धारणा है कि ऐसा कोई रिवाज है, जिससे हिन्दुओं को उसमें जाने का अधिकार है और जैनों की यह धारणा है कि वैसा कोई रिवाज नहीं है तो इस विवादास्पद प्रश्न के निर्णय करने का उचित स्थान अदालत हीथा। यदि कलेक्टर जैनों पर मुकदमा चलाता, तो मामला
अदालत के सामने आ जाता और अदालत साक्षी पुरावे के आधार पर निर्णय करती कि वैसा कोई व्यवहार या रिवाज प्रचलित है या नहीं। (अतः उपयुक्त तो यहीथा कि कलेक्टर महोदय द्वारा मंदिर का ताला तोड़ने का आदेश देने की बजाय, अदालत से न्याय प्राप्त करने का प्रयास किया जाता।)
चूँकि अपनी सम्मति को प्रकट करने के अलावा हम समझते हैं कि इस दरख्वास्त में हमसे किसी हुक्म अर्थात् आदेश देने मांग नहीं की गई है, (अतः हम इस विषय में अपनी सम्मति भर-प्रगट कर रहे हैं, कलेक्टर या बम्बई सरकार के विरुद्ध कोई आदेश नहीं दे रहे हैं।) यहाँ तक कि प्रार्थना पत्र के खर्च के सम्बन्ध में कोई भी हुक्म नहीं दिया जा रहा है।
अनुवादक:पं. वर्द्धमान पार्श्वनाथ शास्त्री, सोलापुर(महा.)
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