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चारित्र चक्रवर्ती
जैनों और हिन्दुओं के बीच के सारे भेद या अन्तर को मिटा देना है।
एडवोकेट जनरल के तर्क को स्वीकार का लेने का दूसरा परिणाम यह होगा किउच्च वर्ण के हिन्दुओं को इस कानून से वे अधिकार मिल जायेंगे जो कि इस कानून को स्वीकार किये जाने से पहले उन्हें प्राप्त नहीं थे। क्योंकि एडवोकेट जनरल के कहने के अनुसार इस कानून के इस प्रकार स्वीकार किये जाने के बाद हर हिन्दू को जैन मन्दिरों में प्रवेश करने का अधिकार मिल जाता है, भले ही उसको वैसा अधिकार इस कानून को स्वीकार किये जाने से पहिले प्राप्त नहीं था। हमारी सम्मति में कानून का यह अर्थ करना भी इस कानून के उद्देश्य और प्रयोजन दोनों के ही सर्वथा विपरीत है। निश्चित ही उच्चवर्ण के हिन्दुओं को (जैन मंदिरों में) कोई भी अधिकार देने के उद्देश्य से यह कानून स्वीकार नहीं किया गया है। इसे स्वीकार करने का प्रयोजन केवल यह था कि हरिजनों की असुविधायें दूर की जायें।
" मन्दिर" शब्द की व्याख्या से भी हमारे उस अर्थ का ही समर्थन होता है, जो कि हम इस कानून का कर रहे हैं । 'मन्दिर की' व्याख्या यह की गई है कि धार्मिक पूजा का वह स्थान जो कि रिवाज, व्यवहार आदि से वैसा अर्थात् पूज्य बन गया है। इसका मतलब यह होता है कि जैनों ने यदि किसी मन्दिर को हिन्दुओं द्वारा काम में लाये जाने की अनुमति दे दी है, तो बिना किसी संदेह वह मन्दिर इस कानून द्वारा की गई 'मन्दिर की' व्याख्या में आ जाता है ( कि वह मन्दिर, दोनों सम्प्रदाय वालों के लिये समान अधिकार को देने वाला हो जाता है) ।
श्री दास यह स्वीकार करते हैं कि यदि किसी विशेष जैन मन्दिर में हिन्दुओं को पुराने रिवाज और व्यवहार से पूजा करने का अधिकार प्राप्त है, तो उस मन्दिर में हरिजनों को भी पूजा करने का वैसा ही अधिकार प्राप्त हो जायगा ।
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परन्तु एडवोकेट जनरल तो हिन्दुओं के लिये उससे भी अधिक ऊँचे अधिकार की माँग करते हैं और वह अधिकार यह है कि भले ही किसी कानून या रिवाज से हिन्दू को जैन मन्दिर में पूजा करने का अधिकार पहले से प्राप्त नहीं है, तो भी उसको इस कानून से वह अधिकार प्राप्त हो जाता है, हम इस मंशा को स्वीकार करने के लिये तैयार नहीं हैं। इसलिये हमारी सम्मति में इस कानून का ठीक अर्थ समझा जाय तो कानूनन स्थिति यह है कि जैन मंदिर में हिन्दुओं को पूजा करने का अधिकार तभी प्राप्त है, जब कि वह उन्होंने कानून अथवा रिवाज से प्राप्त कर लिया हो। यदि हिन्दुओं को जैन मंदिर में पूजा करने का अधिकार प्राप्त है, तो उसी अधिकार के आधार पर वैसा ही अधिकार निश्चय ही हरिजनों को भी प्राप्त हो जाता है। हरिजनों के अधिकार हिन्दुओं के अधिकारों के समान कर दिये गये हैं, लेकिन हिन्दू को जो अधिकार है वह उतना ही है जितना कि इस कानून के स्वीकार किये जाने से पहले प्राप्त था, कोई नया अधिकार उसको इस कानून से नहीं दिया गया है। इसलिये यदि हिन्दू यह सिद्ध कर सके कि उसे इस कानून के स्वीकार किये जाने से पहले जैन मन्दिर में पूजा करने का अधिकार प्राप्त था, तो हरिजन भी वैसे ही समान अधिकार का दावा कर सकते हैं, (अन्यथा नहीं) ।
हम यह भी कह देना चाहते हैं कि यदि जैनों में कोई हरिजन हैं, - हमें बताया गया है कि उनमें कोई हरिजन नहीं - तो जैन हरिजनों को पूजा करने का वैसा ही अधिकार प्राप्त होगा, जैसा कि जैन को है, भले ही वह अधिकार उन्हें इस कानून के स्वीकार किये जाने से पहले प्राप्त न था ।
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