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प्रतिज्ञा-२ (पूर्व-भूमिका) अंग्रेजों के शासन काल (१८३१) से ही जैनियों की गणना हिंदुओं से सर्वथा भिन्न व स्वतंत्र धर्म के रूप में होती आई थी, किंतु पता नहीं स्वतंत्र भारत की प्रांतीय सरकार गव्हर्नमेन्ट ऑफ बोम्बे (महाराष्ट्र-सरकार) किस चिंतन से प्रभावित हुई कि उसने सन् १६४७ से प्रभाशाली हरीजन टेंपल एन्ट्री एक्ट, जिसके कि तहत हरजिनों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य स्वर्ण हिन्दुओं की ही तरह हिन्दु मंदिरों में प्रवेश व पूजा-पाठ आदि का अधिकार प्राप्त हो जाता है, की व्याख्या में जैनियों की भी गणना हिंदुओं में करनी प्रारंभ कर दी व घोषणा कर दी कि हिंदु इन्फ्लुड्स जैन अर्थात् जैन हिंदुओं में सम्मिलित हैं, उनका कोई स्वतंत्र अस्तित्व नहीं है, अतः हरिजनों को हिंदु मंदिरों की ही तरह जैन मंदिरों के भी उपयोग का पूरा-पूरा अधिकार है।
इस निर्णय के विरुद्ध जैन समाज द्वारा तीव्र प्रतिक्रिया परमपूज्य आचार्य शांतिसागर जी महाराज के नेतृत्व में की गई। सरलता से कोई निर्णय न आता देख आचार्य श्री ने १५/८/ १६४८ को फलटन(महा.) में प्रतिज्ञा की कि जब तक धर्म पर आया यह उपसर्ग समीचीनतया टल नहीं जाता अर्थात् जब तक श्रमण संस्कृति(जैन-धर्म) को वैदिक संस्कृति(हिंदु-धर्म) से सर्वथा भिन्न संस्कृति के रूप में संवैधानिक तौर पर शासन द्वारा स्वीकार नहीं कर लिया जाता, तब तक वे अन्न ग्रहण नहीं करेंगे॥
इस आंदोलन में सरकार पर दबाव बनाने के उद्देश्य से परमपूज्य मुनिवर श्रेयाँस सागरजी महाराज ने आमरण अनशन धारण किया। ११वें दिन उनका स्वर्गवास हो गया। सम्पूर्ण जैन समाज में क्षोभ का वातावरण छा गया, जिसकी कि तीव्र व तीखी प्रतिक्रिया रूप चारों ओर से इस एक्ट के विरुद्ध में सैकड़ों की तादाद में टेलिग्राम व पत्र भारत सरकार व गव्हर्नमेन्ट ऑफ बोम्बे (महाराष्ट्र-सरकार) को भेजे गये, किंतु गव्हर्नमेन्ट ऑफ बोम्बे (महाराष्ट्र-सरकार) के कानों पर तक नहीं रेंगी व भारत सरकार चूँकि २६ जनवरी सन् १९५० से क्रियान्वय होने वाले स्वतंत्र भारत के स्वतंत्र संविधान के प्रारूप की निर्मिति व खानापूर्ति में लगी थी, अतः संवैधानिक, सामाजिक, राजनैतिक, अथवा अन्य भी सामयिक व दीर्घकालिक समस्याओं व उनके समाधान की ओर लक्ष्य नहीं दे पा रही थी। __ आचार्य श्री को चिंता हुई व उन्होंने निर्णय लिया कि जो स्थिति जैनियों की गव्हर्नमेन्ट
ऑफ बोम्बे (महाराष्ट्र-सरकार)के संविधान में है, वही स्थिति कहीं केन्द्र सरकार में भी न हो जाये, अतः केन्द्र सरकार को स्वतंत्र भारत के नवीन संविधान के पारित होने के पूर्व अपने
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