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चारित्र चक्रवर्ती दोषों को क्षय करने के लिये छह कर्म करने की आवश्यकता है। यह व्यवहार हुआ। उससे यथार्थ में मोक्ष नहीं होता। ऐहिक सुख मिलेगा, पंचेन्द्रिय सुख मिलेगा, परन्तु मोक्ष नहीं मिलेगा। मोक्ष किससे मिलता है ? मोक्ष केवल आत्मचिंतन से ही मिलता है। बाकी किसी भी कर्म से, क्रिया से, कार्य से और किसी कारण से मोक्ष नहीं मिलता। जिनवाणी पर श्रद्धा
__ नये, शास्त्र, अनुभव इन तीनों को मिलाकर विचार करो कि मोक्ष किससे मिलता है ? बाकी सब रहने दो। अपना अनुभव क्या ? भगवान् की वाणी के सामने उसका कोई मूल्य नहीं है। वाणी सत्य है। उस वाणी पर पूर्ण विश्वास रखना चाहिए। उस वाणी के एक शब्द सुनने पर एक शब्द से ही जीव तिर कर मुक्ति को जायेगा, ऐसा नियम है।
सत्य वाणी कौन-सी है ? एक आत्मचिंतन। आत्मचिंतन से सर्व कार्य सिद्ध होने वाले हैं। उसके सिवाय कुछ भी नहीं। अरे भाई! बाकी कोई भी क्रिया करने पर पुण्यबंध पड़ता है, स्वर्ग-सुख मिलता है, संपत्ति, संतति, धनवान, स्वर्ग-सुख यह सब होते हैं, पर मोक्ष नहीं मिलता है। मोक्ष मिलने के लिये केवल आत्मचिंतन है, तो वह कार्य करना ही चाहिए। उसके बिना सद्गति नहीं होती, यह क्रिया करनी चाहिए। सारांश ___ धर्मस्य मूलं दया। जिनधर्म का मूल क्या है ? सत्य, अहिंसा। मुख से सभी सत्य, अहिंसा बोलते हैं, पालते नहीं। रसोई करो, भोजन करो। ऐसा कहने से क्या पेट भरेगा? क्रिया किए बिना, भोजन किए बिना पेट नहीं भरता है बाबा। इसलिए क्रिया करने की आवश्यकता है। क्रिया करनी चाहिए, तब अपना कार्य सिद्ध होता है।
सब कार्य छोड़ो। सत्य, अहिंसा का पालन करो। सत्य में सम्यक्त्व आ जाता है। अहिंसा में किसी जीव को दुःख नहीं दिया जाता, अतः संयम होता है, यह व्यावहारिक बात है। इस व्यवहार का पालन करो। सम्यक्त्व धारण करो, संयम धारण करो, तब आपका कल्याण होगा। इसके बिना कल्याण नहीं होगा।
-(दिनांक ८-६-१९५५, गुरुवार, समय५.१० से ५.३२ तक संध्या) सूचना : बंबई से पं. तनसुखलालजी की प्रेरणा से प्रेरित सेठ श्री निरंजनलाल जी रिकार्डिंग मशीन लेकर आचार्यश्री की सेवा में कुंथलगिरि पधारे, जिसमें आचार्यश्री द्वारा मराठी में दिये गये २२मिनट के अन्तिम उपदेश को रिकार्ड किया गया। इस समय गुफा में दोनों क्षुल्लक जी(सुमतिसागर व सिद्धिसागर), भट्टारक लक्ष्मीसेनजी, भट्टारक जिनसेनजी, संघपति सेठ गेंदनमलजी, बाबूराव परंडेकर आदि उपस्थित थे। रिकार्ड होने के बाद जब दुबारा सुना गया तब पं. शिखरचन्द जी मैंनेजर महासभा विशारद भी वहां पहुँच गये थे। उपर्युक्त हिन्दी अनुवाद इसी अंतिम अमर संदेश का है।(साभार-आचार्यशान्तिसागर श्रद्धांजलि विशेषांक)
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