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________________ अंतिम अमर संदेश ५४६ सम्यक्त्व प्राप्त कर संयम के पीछे लगना चाहिए। यह चारित्रमोहनीय कर्म का उदय है कि सम्यक्त्व होकर जीव ६६ सागर तक रहता है और मोक्ष नहीं होता । क्यों ? चारित्रमोहनीय कर्म का उदय होने से। संयम-पालन चारित्रमोहनीय कर्म का क्षय करने के लिए संयम को ही धारण करना चाहिए। संयम के बिना चारित्रमोहनीय कर्म का नाश नहीं होता। इसलिए यह संयम कैसा भी हो, परन्तु संयम धारण करना चाहिए। डरो मत। धारण करने में डरो मत। संयम धारण किये बिना सातवाँ गुणस्थान नहीं होता है। सातवें गुणस्थान के बिना आत्मानुभव नहीं होता है। आत्मानुभव के बिना कर्मो की निर्जरा नहीं होती। कर्मो की निर्जरा के बिना केवलज्ञान नहीं होता। समाधि ॐ सिद्धाय नमः । निर्विकल्प समाधि, सविकल्प समाधि, इस प्रकार समाधि के दो भेद कहे गये हैं । कपड़ों में रहने वाले गृहस्थ सविकल्प समाधि करेंगे। मुनियों के सिवाय निर्विकल्प समाधि होती नहीं है। वस्त्र छोड़े बिना मुनिपद नहीं होता। भाइयों, डरो मत, मुनिपद धारण करो। यथार्थ संयम हुए बिना निर्विकल्प समाधि नहीं होती है। इस प्रकार समयसार में कुंदकुंद स्वामी ने कहा है। आत्मानुभव के बिना सम्यक्त्व नहीं होता है। व्यवहार सम्यक्त्व को उपचार कहा है। यह यथार्थ सम्यक्त्व नहीं है, यह साधन है। जिस प्रकार फल आने के लिये फूल कारण है, उसी प्रकार व्यवहार सम्यक्त्व कहा है। __ यथार्थ सम्यक्त्व कब होता है ? आत्मानुभव होने के बाद होता है। आत्मानुभव कब होता है ? निर्विकल्प समाधि होने पर होता है। निर्विकल्प समाधि कब होती है ? मुनिपद धारण करने पर ही होती है। निर्विकल्प समाधि का प्रारम्भ कब होता है ? सातवें गुणस्थान से प्रारम्भ होता है और बारहवें गुणस्थान में पूर्ण होता है, तेरहवें गुणस्थान में केवलज्ञान होता है, इस प्रकार नियम है। शास्त्रों में ऐसा लिखा है। इसलिये डरो मत। संयम धारण करो, सम्यक्त्व, धारण करो, ये आपके कल्याण करने वाले हैं । इनके सिवाय कल्याण होता नहीं । संयम के बिना कल्याण नहीं होता है। आत्मचिंतन के बिना कल्याण नहीं होता है। पुद्गल और जीव अलग-अलग हैं, यह पक्का समझना। तुमने साधारणरूप से समझा है, यथार्थ तत्वं अभी समझ में आया नहीं। यथार्थ समझ में आया होता, तो इस पुद्गल के मोह में तुम क्यों पड़ते ? संसार में बाल-बच्चे, भाई-बन्धु, माता-पिता, वे सब पुद्गल के संबंध से होने वाले हैं। जीव के सम्बन्ध वाले कोई नहीं ? अरे भाई! जीव अकेला ही जानेवाला है। देवपूजा, गुरुपास्ति, स्वाध्याय, संयम, तप और दान ये छह क्रिया कही गई है।असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्या, ये छह आरंभ कहे गये हैं। इन छह आरंभजनित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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