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________________ चौंसठ चारित्र चक्रवर्ती - एक अध्ययन है, तब तक उसे जीवित रखते हैं, मरने नहीं देते | इस विवक्षा से श्रुत से जाना हुआ परोक्ष होकर भी, परोक्ष नहीं प्रत्यक्ष ही है, क्योंकि जिसने प्रत्यक्ष जाना है, उससे भिन्न को जानने वाला यह नहीं है, अपितु उसी को जानने वाला है ।' अतः मैं भी आचार्य श्री को किसो न किसी अपेक्षा से प्रत्यक्ष जानने वालों में से ही हूँ, उनसे पृथक नहीं। हाँ!! मैं आचार्य श्री को श्रुत से जानता हूँ ॥ श्रुत, जो कि आचार्य श्री के काल में आचार्य श्री के कृत्यों से प्रभावित होकर उस काल के श्रुतज्ञानियों ने लिखा अथवा वे, जिन्होंने कि आचार्य श्री का प्रत्यक्षीकरण किया, व उस प्रत्यक्षीकरण को कहा || जिन्होंने आचार्य श्री का प्रत्यक्षीकरण किया व उसे कहा उनकी संख्या वर्तमान में अल्प है, किंतु हाँ !! आचार्य श्री के विषय में जो लिखा गया, वह साहित्य विपुल है । मेरे सम्मुख आचार्य श्री के समय में आचार्य श्री के विषय में सतत जानकारी देनेवाली पत्र-पत्रिकायें रखी हुई हैं, जिनमें मुख्य हैं शोलापुर से प्रकाशित होने वाला जैन बोधक, सूरत से प्रकाशित होने वाला जैन मित्र, जैन गजट, खण्डेलवाल हितेच्छु आदि -आदि । इन्हीं के साथ एक-दो आचार्य श्री के संबंध में लिखे जानेवाले चारित्र ग्रंथ भी हैं ।। सन् १६३१ में सेठ जीवराज गौतमचंद जी ने मराठी में लिखा था । उनके पश्चात् पंडित वंशीधर जी शास्त्री परवार ( सोलापुर वाले) ने १९३३ में हिन्दी में लिखा || इनमें से वंशीधर जी के द्वारा लिखित चारित्र विक्रम संवत् १६८८ तक हुए तेरह चातुर्मासों का सिलसिले वार ब्यौरा देनेवाला अद्भूत संकलन ग्रंथ है | इसका प्रकाशन संवत् १६६० सन् १९३४ में किया गया था। इनके अतिरिक्त आचार्य श्री के शिष्य मुनिवर्य कुंथूसागरजी' ने भी १६३६-३७ में आचार्य श्री का संस्कृत भाषा में छंदबद्ध चारित्र लिखा था ॥ इनके अतिरिक्त और भी प्रकाशन हुए होंगे, नहीं ही हुए होंगे, ऐसा हम दावा नहीं कर सकते, किन्तु हाँ !! अभी वे मेरे सम्मुख नहीं है ।। मेरे इस आख्यान का आधार मुख्यता से उपर्युक्त उल्लेखित श्रुत ही हैं, इन श्रुतों से अन्य और कुछ नहीं । नहीं-नहीं, एक और श्रुत-ग्रंथ है चारित्र - चक्रवर्ती ॥ इसे पूर्व के प्रकाशित साहित्यों, कुछ साक्षात्कारों, कुछ स्मृति से व कुछ डायरी में स्वयं लेखक द्वारा लिखे गये आवश्यक १. नाम निक्षेप से, स्थापना निक्षेप से व द्रव्य निक्षेप से २. . मुनिवर्य कुंथूसागर जी के विषय में स्वयं आचार्य भगवंत ने इस प्रकार कहा है (चारित्र चक्रवर्ती, संस्करण १६६७, पृष्ठ २२३, उपशीर्षक : कुंथुसागर, मूल शीर्षक: प्रभावना) - "जब यह पहले आया था, तब इसको कुछ शास्त्र का बोध नहीं था। धीरे-धीरे पढ़ने का योग लगाया। बुद्धि अच्छी थी । बहुत शीघ्र होशियार हो गया। संस्कृत कविता करने लगा | भाषण देने लगा । " Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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