SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 650
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२८ चारित्र चक्रवर्ती शिष्य को गुरुत्व की प्राप्ति आचार्य महाराज ने देवप्पास्वामी (मुनि देवेन्द्रकीर्ति महाराज) से क्षुल्लक दीक्षा ली थी। देवप्पास्वामी सन् १९२५ में श्रवणबेलगोला में थे, उस समय महाराज भी वहाँ पहुंचे। देवप्पास्वामी ने वहाँ महाराज का शास्त्रोक्त जीवन देखा और जब उससे उन्होंने अपनी शिथिलाचारपूर्ण प्रवृत्ति की तुलना की, तब उनको ज्ञात हुआ कि मेरी प्रवृत्ति मुनिपदवी के अनुकूल नहीं है। देवप्पास्वामी दस गज लम्बा वस्त्र ओढ़ते थे। उद्दिष्ट स्थान पर जाकर आहार लेते थे। आहार के समय वे दिगम्बर होते थे। भोजन के समय जोर से धंटा बजता था, ताकि भोजन में अन्तराय रूप वाक्य कर्णेन्द्रियगोचर ही न हो। ऐसी अनेक बातें थीं। देवप्पास्वामी सच्चे मुमुक्षु थे। विषयों से विरक्त थे। उनको सम्यक् प्रणाली का पता न था। उन्होंने आचार्य महाराज से कहा- “मुझे छेदोपस्थापना दीजिये। आगम के अनुसार मेरा कल्याण कीजिए। आपके शास्त्रोक्त जीवन से मेरी आत्मा प्रभावित हो उठी है।" आचार्य महाराज ने उनको यथायोग्य प्रायश्चित्तपूर्वक पुनः दीक्षा दी। उनके गुरु ने भी गुरुत्व का परित्याग कर शिष्य पदवी स्वीकार की। सत्पुरुष आत्महित को सर्वोपरि मानते हैं। आचार्य महाराज को अपने गुरु के सम्बन्ध की यह चर्चा करना अच्छा नहीं लगता था। प्रभावशाली व्यक्तित्व __ "देवप्पास्वामी का ब्रह्मचर्य बड़ा उज्ज्वल था। वे सिद्धिसंपन्न सत्पुरुष थे। मैंने गोकाक में उनकी गौरवपूर्ण कथा सुनी थी। उसकी प्रामाणिकता का निश्चय भी कियाथा। वे गोकाक से कोन्नूर जा रहे थे। वहाँ की भीषण पहाड़ी पर ही सूर्य अस्त हो गया अर्थात् संध्या हो गई। उनके साथ एक उपाध्याय था। उसे कग्गुड़ी पण्डित कहते थे। स्वामी ने एक चक्कर खींचकर उपाध्याय को उसके भीतर सूर्योदय पर्यन्त रहने को कहा और वे भी उस घेरे के भीतर ध्यान के लिए बैठ गए।" शेर की गर्जना रात्रि होने पर एक भयानक शेर वहाँ आया। उसने खूब गर्जना की, उपद्रव किए, किन्तु वह व्याघ्र घेरे के भीतर न घुस सका। भय से उपाध्याय का बुरा हाल था, फिर भी वह घेरे के बाहर नहीं गया। दिन निकलने के बाद स्वामी कोन्नूर पहुंचे, तब उपाध्याय ने सब जगह उपरोक्त कथा सुनाई। इससे देवप्पा स्वामी का महत्व सूचित होता है। शुद्ध मुनिपद धारण कर उनकी आत्मा बहुत विकसित हुई। भीमशा की भीषण भक्ति आचार्य श्री कागनोली में विराजमान थे। चातुर्मास का समय सन्निकट था। प्रत्येक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy