SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 644
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ५२२ चारित्र चक्रवर्ती लिए जाने से डरो मत। अपनी श्रद्धा को निर्मल रखो । चारित्र में दोष आवे, तो प्रायश्चित् द्वारा शुद्ध करो। हमारा हृदय कहता है कि अब जैनधर्म का उद्योत होगा । इसके लिये धन, तन तथा मन को लगाकर काम करना चाहिये। धर्म-प्रचार के लिये धर्म श्रद्धालु, सदाचारसम्पन्न तथा निस्पृह व्यक्ति चाहिये । तुम खूब धर्म-प्रचार करो। यही हमारा तुमको आशीर्वाद है । " ( यह कहकर उन्होंने बड़ी स्नेहमयी भावना से मेरे मस्तक पर अपनी करुणामयी पिच्छिका रख दी । ) जैनों का कर्त्तव्य प्रश्न - " आज के जैन भाइयों के लिये आपको क्या कहना है ? " उत्तर- " जैनियों को अपनी धार्मिक क्रियाओं का रक्षण करना चाहिये। मांस, मदिरा, मधु व रात्रि भोजन त्यागना चाहिये । धनवान हो या उच्च अधिकारी हों, प्रत्येक जैनी को छना पानी पीना चाहिये व रात्रि को भोजन नहीं करना चाहिये । शास्त्र में लिखा है कि रात्रि - भोजन त्यागने से आधा जीवन उपवासपूर्वक सहज ही व्यतीत होता है।' " प्रश्न- " आजकल लोग स्वयं को भगवान् सरीखा समझ साधनसम्पन्न होते हुए भी जिनेन्द्र - दर्शन नहीं करते। इससे कोई हानि तो नहीं है ?" महाराज ने कहा- " ऐसा करना अच्छा नहीं है । जो स्वयं को भगवान् सोचते हैं, वे यहाँ संसार में क्यों रहते हैं ? अपने स्थान पर क्यों नहीं जाते ?” उन्होंने यह भी कहा- "जो स्वयं धर्म से पतित होकर तथा उसे दूर फेंककर दूसरे के कल्याण की बात सोचते हैं, वे भूल में हैं। स्वयं धर्म पर आरूढ़ होकर ही जिनधर्म की प्रभावना हो सकती है।" महाराज के ये शब्द विशेष ध्यान देने योग्य हैं, "जैनधर्मी अपने धर्म से डिग रहे हैं । कहने से वे नहीं सुनते। जब अन्य धर्म वाले जैनधर्म से प्रेम करेंगे, भक्ति करेंगे, तब इन जैनों में भी शरम से अपने धर्म की जागृति होगी । " गुरु को प्रणाम की प्रार्थना मैंने महाराज से कहा था- " आप तो स्वर्गयात्रा करने वाले हैं। कदाचित् आचार्य शांतिसागर महाराज का दर्शन हो, तो हमारा प्रणाम कह दीजिए। इस जैनधर्म को गौरवान्वित करने का वहाँ ध्यान रखिए। " ता. १६ के प्रभात में उन क्षपकराज का पुनः दर्शन किया। उन्होंने फिर से देश-विदेश में जैनधर्म की प्रभावना करने का आदेश देते हुए आशीर्वाद दिया। मैं पावापुरी के लिए रवाना हुआ। पश्चात् ज्ञात हुआ कि २२ अक्टूबर को साम्य-भाव सहित नमिसागर महाराज शरीर त्याग कर स्वर्ग की ओर गये। उनका स्वर्गवास हो गया। Jain Education International ******** For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy