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________________ श्रमणों के संस्मरण ५०५ मसजिद, वायसराय भवन आदि कुछ स्थानों पर जाने की रोक थी ।जब आचार्य महाराज को यह हाल विदित हुआ, तब उनकी आज्ञानुसार मैं, चन्द्रसागर, वीरसागर उन स्थानों पर गए थे, जहाँ गमन के लिए रोक लगा दी गई थी। आचार्य महाराज ने कह दिया था कि जहाँ भी विहार में रोक आवे, तुम वहीं बैठ जाना। हम सर्व स्थानों पर गए। कोई रोक-टोक नहीं हुई। उन स्थानों पर पहुँचने के उपरान्त फोटो उतारी गई थी, जिससे यह प्रमाणित होता था कि उन स्थानों पर दिगम्बर मुनि का विहार हो चुका है।" नेमिसागर महाराज ने बम्बई में उन स्थानों पर भी विहार किया है, जहाँ मुनियों के विहार को लोग असम्भव मानते थे। हाईकोर्ट, समुद्र के किनारे जहाँ जहाजों से माल आता-जाता है। ऐसे प्रमुख केन्द्रों पर भी नेमिसागर महाराज गये, इसके सुन्दर चित्र भी खिंचे हैं। इनके द्वारा दिगम्बर जैन मुनिराज के सर्वत्र विहार का अधिकार स्पष्ट सूचित होता है। साधुओं की निर्भीकता पर भी प्रकाश पड़ता है। कल्याणसाधक त्याग महाराज ने उपदेश के अंत में ये मार्मिक शब्द कहे थे,-"जिसका पाप है, उसे ही वह खाता है। श्रावक धर्म का पालन करो। त्याग बिना कल्याण नहीं। भावना करो कि कब संसार से हम छूटें?" यह कितनी अपूर्व बात है-"भावना करो कि हम संसार से कब छूटें ?"हम संसार में फंसने का सदा उद्योग करते हैं। यथार्थ में शाश्वतिक शान्ति का बीजारोपण तब होता है, जब अन्तःकरण में यह भावना उत्पन्न होती है कि अब हम संसार के जाल से निकलकर स्व अधीन बनें। इस स्वाधीनता का मार्ग वीतराग शासन की शरण ग्रहण करना है, अतः "हे प्रभो! प्रत्येक आत्मा में ऐसा सामर्थ्य उत्पन्न हो जाय कि वह दुःखमय संसार से छूटकर, आनन्दधाम निर्वाण का अधिपति बन जाय।" नेमिसागर महाराज का जीवन न सिर्फ त्यागमय, तपोमय, सौरभमय बना, बल्कि प्रतिक्षण वह शुद्ध, परिशुद्ध होता जा रहा है, इसके कारण आचार्य शांतिसागर महाराज थे। उनके उज्ज्वल जीवन ने कितने भव्यों का उपकार नहीं किया है ? शिष्य मंडली के सुविकसित, समुन्नत तथा समुज्ज्वल जीवन में आचार्य महाराज का पवित्र प्रभाव सुस्पष्ट रूप से दृष्टिगोचर होता है। भावना के साथ यथाशक्ति प्रवृत्ति भी हितकारी है। मक्कार लोग कोरी भावना का प्रदर्शन कर स्व तथा पर को ठगते हैं। नेमिसागर महाराज के विचार सन् १९५८ के व्रतों में १०८ नेमिसागर महाराज के लगभग दस हजार उपवास पूर्ण : हुए थे और चौदह सौ बावन गणधर सम्बन्धी उपवास करने की नवीन प्रतिज्ञा उन्होंने ली, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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