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चारित्र चक्रवर्ती सुनाई पड़ता है, तो क्या बात है?"
उन्होंने उत्तर में सूत्ररूप ये शब्द कहे-“सम्यक्त्वखेल नहीं है, वह बहुत बड़ी चीज है।" साधु बहिष्कार
प्रश्न-“आज हर एक आदमी कहने लगता है, अमुक साधु में इस प्रकार दोष है, उसको ठीक करना समाज का कर्त्तव्य है । इस विषय में आपका क्या कहना है ?"
उत्तर-“पहिले एक बार इस प्रकार का एक विकट प्रसंग आ चुका है कि मुनि का बहिष्कार कौन कर सकता है ? तब मैंने कहा था कि मुनि के बहिष्कार करने का तुमको या मुझको अधिकार नहीं है। राजा को या आचार्य शांतिसागरजी को (जो उस समय जीवित थे) इस विषय में अधिकार है।"
वे कहने लगे-“आजकल लोग अतिरेक में लग गये हैं। हर बात में अतिरेक होने से ही गड़बड़ी पैदा हो गयी है। कोई किसी की नहीं सुनता, सब अपनी-अपनी सुनाना चाहते हैं।"
प्रश्न-“ऐसी स्थिति में सत्पुरुष का क्या कर्तव्य है ?" उत्तर-“ऐकावे जनाचे, करावे मनाचे (लोगों की सुनो ओर अन्तःकरण के अनुसार
करो)।"
गांधीजी भी तो अन्तरात्मा की आवाज को बहुत महत्व दिया करते थे। यह बात भी स्मरण पोषण है कि पाप करते-करते पापी की अन्तरात्मा का एक प्रकार से प्राणहरण हो जाता है। . विचित्र प्रश्न
एक बार एक साम्प्रदायिक गेरुआ वस्त्र धारण कर आचार्य महाराज के पास आया और उसने आचार्य महाराज से एक विचित्र प्रश्न पूछा-“सब वस्त्र त्यागकर आप नग्न क्यों बने हैं ?"
इस प्रश्न को सुनकर आचार्य महाराज पूर्ण शान्त रहे। उन्होंने कहा था-"भाई ! यह तो बताओ, आपने गेरुआ वस्त्र क्यों धारण किया ?" उस विद्वान् ने कहा- “हमारे शास्त्र की आज्ञा है कि साधुको गेरुआ वस्त्र रखना चाहिए।"
आचार्य महाराज ने कहा-“आपका शास्त्र गेरुआ वस्त्र रखने की आज्ञा देता है, किन्तु हमारा शास्त्र दिगम्बर मुद्रा धारण करने की बात बताता है। आपका शास्त्र आपके लिए मान्य है, हमारा शास्त्र हमारे लिए मार्गदर्शक है।"
महाराज वीरसागरजी ने बताया था कि इस उत्तर से वे विद्वान् आवाक् हो गये थे और उनके मन में महाराज के प्रति आदर का भाव जगा था।
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