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________________ ४८० चारित्र चक्रवर्ती किसान को राजमहल में सुन्दर दृश्य बताए गए। मधुर-मधुर गीत सुनाए गये। अन्त में भरतेश्वर ने उस किसान से पूछा- “तुमने क्या-क्या देखा?" . वह किसान बोला- “महाराज ! मैं कुछ भी नहीं देख पाया। पानी की बूंद गिरने पर सिर कटने का जो दण्ड आपने बता दिया था, उससे मैं डर गया था। मेरा ध्यान पानी के घड़े पर ही था। मैं एक भी दृश्य नहीं देख सका।" भरतेश्वर ने कहा-“जिस प्रकार प्राण जाने के डर से तुम सब दृश्य सम्मुख होते हुए भी, उनको नहीं देख सके, उसी प्रकार मेरा भी ध्यान है। सारे राज्य वैभव के मध्य रहते हए भी संसार के दुःखों का सतत स्मरण रहने के कारण मेरा भी ध्यान अपनी आत्मा के बाहर नहीं जाता है।" शिथिलाचार में सुधार वर्धमान स्वामी ने बताया-“आचार्य महाराज को क्षुल्लक पद प्रदान करने वाले मुनि देवप्पा स्वामी के समय में मुनि पद में बहुत शिथिलता थी। उस समय देवप्पा स्वामी आहार को जाते थे, पश्चात् दातार से सवा रुपये लेते थे। आचार्य महाराज ने क्षुल्लक पद में भी ऐसा नहीं किया। इस पर देवप्पा स्वामी कहते थे कि तुम रुपया लेकर हमें दे दिया करो। आगमप्रिय आचार्य महाराज को यह बात अनिष्ट लगी, अतः महाराज ने देवप्पा स्वामी का साथ छोड़ दिया था।" आगम का महत्व आचार्य महाराज आगम के समक्ष लोकाचार को कोई महत्व नहीं देते थे। आचार्य महाराज ने मुनिजीवन में नवीनता लाकर उसमें सच्चा प्राण उत्पन्न किया था। पहले ऐसा होता था कि मुनिराज शरीर पर एक चादर ढाँककर उपाध्याय के द्वारा निर्धारित घर में मार्ग से जाते थे। उस घर में पहुंचने के बाद इनकी वैयावृत्य होती थी, स्नान होता था, पश्चात् वस्त्र त्यागकर आहार ग्रहण किया जाता था। आहार के समय घण्टा या बर्तन बजाया जाता था, जिससे अंतराय का कारण बनने वाला शब्द कर्णगोचर ही न हो। - आहार के बाद मुनिराज दक्षिणारूप में सवा रुपया लेते थे। अनंत उपकार आचार्यश्री के प्रतिभाशाली तत्त्वचिन्तक मस्तिष्क ने मुनिपद में आगत विकारों को ज्ञात कर उसे शुद्ध करने का अपूर्व कार्य किया था। स्व. आचार्य वीरसागर महाराज ने कहा था-"आचार्य शांतिसागर महाराज ने मुनि धर्म के भीतर उत्पन्न भयंकर शिथिलाचार को दूरकर अनंत उपकार का कार्य किया था। उनके उपकार का वर्णन करने के लिए हमारे पास शब्द नहीं हैं।" Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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