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________________ ४३८ पावन समृति उन्होंने जूता पहिनना छोड़ दिया था।" ___ “महाराज के सबसे बड़े भाई देवगोंडा (वर्धमानसागरजी) थे। दूसरे भाई आदिगोंडा थे। महाराज से छोटी बहिन कृष्णाबाई थी। कुमगोंडा सबसे छोटे भाई थे। सब भाईबहिन मिलकर वे ५ व्यक्ति थे।" देवगोंडा की सत्यनिष्ठा वर्धमानसागर महाराज का चरित्र भी बड़ा मधुर रहा हैं। वे अत्यन्त सरल और दयालु रहे हैं। उनके विषय की एक मधुर चर्चा ज्ञात हुई थी। उनके घर का बटवारा हो चुका था। सम्पत्ति के निमित्त को लेकर एक मुकदमा न्यायालय के समक्ष पेंश हुआ। यदि ये इतनी बात कह देते कि हमारे घर का बटवारा नहीं हुआ है, तो इनको बहुत धन का लाभ होता। वकील ने इनको खूब समझाया था कि आज पेशी पर तुम इतना अवश्य कहना कि हमारा बटवारा नहीं हुआ है। ये जब अदालत में पहुँचे, तो यह कह बैठे कि हमारा बटवारा हो चुका है। इससे ये असफल हो गए। कचहरी से लौटने पर वकील इनसे बोला-"आपको कितना समझाया था कि यह न कह देना कि हमारा बटवारा हो गया है, किन्तु आपने एक न मानी।" वे बोले-“क्या करें। जो ठीक-ठीक बात थी, वह कह दी। नुकसान हो गया, तो हो जाने दो। हम खोटी बात नहीं कहेंगे।" तपस्विनी बहिन महाराज की बहिन कृष्णाबाई के बारे में कुन्थलगिरि में ज्ञात हुआ कि वह बहुत तपस्विनी थी। ६ वर्ष की अवस्था में कृष्णाबाई विधवा हो गई थी। यथार्थ में वह बालब्रह्मचारिणी रही। भीम के संस्मरण महाराज के भाई के पौत्र का नाम भीमगोंडा है। कुन्थलगिरि में भीम ने हमें बताया कि वह कृष्णाबाई को आजी कहता था, भीम ने बताया, आजी मुझे अण्णा कहती थी, मेरा नाम नहीं लेती थी। कारण, हमारे बाबा-प्रपितामह का नाम भीम था। आजी उनका नाम लेने में संकोचवश मुझे अण्णा कहती थी। घर के सभी लोग मुझे अण्णा कहते है। ___ महाराज के परिवार की यह पद्धति रही है कि पुत्र-पौत्रादि के नाम पिता, पितामह आदि के नामानुसार रखें जाते थे, ताकि उन पूज्य पूर्वजों की स्मृति सदा हरी-भरी रही आवे। दक्षिण की ऐसी प्रणाली प्राचीनकाल से रही है। क्षत्रचूड़ामणि में कहा है कि सत्यंधर राजा के पुत्र महाराज जीवंधर ने गंधर्वदत्ता महारानी से उत्पन्न अपने राजकुमार का नाम सत्यंधर रखा था। उत्तरप्रान्त में ऐसी प्रणाली नहीं पाई जाती। भीम ने सुनाया था-"आजी आचार्यश्री को महाराज कहती थी। आजी का सारा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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