SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 554
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ४३७ चारित्र चक्रवर्ती पिच्छीरहित आर्यिका सदृश थी। माता की आदत शास्त्र चर्चा करने की थी। महाराज तथा कुमगोंडा माता को शास्त्र सुनाते थे। माता बहुत उदार थी। उनके घर में सदा अतिथि सत्कार हुआ करता था। सातगोंडा का मधुर चरित्र __ अतिथि सत्कार तथा साधु की वैयावृत्य करने में महाराज बहुत प्रवीण थे। वे साधु को स्वयं आहार देते थे। उनमें विनय बहुत थी। महाराज की प्रवृत्ति देखकर सबका मन यह बोलता था कि ये नियम से महामुनि बनेंगे। वे माता की आज्ञा का पालन करते थे। बड़ों की बात का आदर करते थे। उनके विषय में जनता कहती थी- “सातगोंडा फार चांगला, फार सरल, फार सज्जन आहे.- (सातगोंडा-आचार्य महाराज का गृहस्थावस्था का नाम- बहुत अच्छे, अत्यन्त सरल तथा अधिक सज्जन है।). भोज के देवता भोजवासी महाराज को देवतासदृश मानते थे। वे घर में कम बोलते थे। उनका सम्बन्ध वैर-विरोधपूर्ण बातों से तनिक भी नहीं रहता था। मधुर भाषा बोलते थे। छेदकरी या पीड़ादायिनी वाणी नहीं बोलते थे। वे मौन से भोजन करते थे। घर में रहते हुए भी वे घी, नमक, शक्कर तथा हरी शाक नहीं खाते थे। संध्या को पानी तक नहीं पीते थें घर त्यागने के पाँच-छ: वर्ष पहले से वे एक दिन के बाद से भोजन करते थे। सबेरे मन्दिर जाकर दर्शन, सामायिक करते थे। दस बजे स्नान करके मन्दिर को पूजा करने जाते थे। वे पूजा करते थे। भगवान् का अभिषेक उपाध्याय करता था। हमारी तरफ अभिषेक उपाध्याय (पुजारी) ही करता है। महाराज रात्रि को सब लोगों को शास्त्र सुनाते थे। चातुर्मास के समय अधिक लोग शास्त्र सुनने आते थे। जैन तथा जैनेतरों की दृष्टि में महाराज सत्पुरूष माने जाते थे। भोजग्राम की जनता भी बहत धार्मिक है। “महाराज का कुमगोंडा पर बहुत प्रेम था। महाराज के घराने में तपस्वी होते चले आए हैं। घर के सब लोग महाराज की आज्ञा में रहते थे। वे इनको साधुसदृश देखते थे। ये कभी भी खेल तमाशे में नहीं जाते थे। धार्मिक कीर्तन को अवश्य देखते थे।" उक्त पार्श्वमती माताजी के भोज में आठ चातुर्मास हो चुके थे। उन्होंने यह भी कहा था-“मैं महाराज को अण्णा (बड़ा भाई) कहली थी।"भोज के आस-पास की जनता बहुत धार्मिक हैं। लोग सर्व प्रकार सुखी तथा संपन्न है। भोज में लगभग तीन सौ घर जैनियों के हैं।" वेषभूषा “महाराज बंडी, धोती, फेंटा, दुपट्टा रखते थे। दीक्षा लेने के १५ या २० वर्ष पूर्व से Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003601
Book TitleCharitra Chakravarti
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSumeruchand Diwakar Shastri
PublisherBharat Varshiya Digambar Jain Mahasabha
Publication Year2006
Total Pages772
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy